पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१८२

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| - . १७६ को ॐ करे; क्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता। उसी प्रकार मेरे हृदय में संशय से हो रहा है। सो तुम्ह जानहु अंतरजामी ॐ पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी सकुच बिहाइ माँगु नृप मोही' ॐ मोरे नहिं अदेय कछु तोही | उसे हे मन की बात जानने वाले स्वामी ! आप सब जानते हैं। अब मेरा मनोरथ पूरी कीजिये । भगवान् ने कहा-हे राजा ! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो राम) या मुझे ही माँग लो । मेरे पास ऐसी कोई वस्तु नहीं जो तुम्हें न दें। | [ मोही में श्लेष अलंकार ] - दानि सिरोसनि कृपानिधि लाथ कहउँ सतभाउ।। चाहउँ तुम्हहिं समान सुत प्रभु सन कवन ढुराउ।१४९ राजा ने कहा- हे दानियों के शिरोमणि ! कृपा के भण्डार ! नाथ ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि आपके जैसा पुत्र चाहता हूँ। स्वामी से राम भला क्यों छिपाऊँ ? ॐ देखि प्रीति सुनि बचन अमोले % एवमस्तु करुनानिधि वोले आषु सरिस खोज कहँ जाई ॐ नृप तव तनय होव मैं आई राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर दया के भण्डार भगवान् बोले-ऐसा ही हो। मैं अपने समान दूसरो कहाँ जाकर खोजें ? हे | राजन् ! मैं स्वयं आकर तुम्हारा पुत्र होऊँगा। सतरूपहिं विलोकि कर जोरें ॐ देबि माँशु बरु जो रुचि तोरें जो बरु नाथ चतुर नृप माँगा # सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागी शतरूपा को हाथ जोड़े हुए देखकर भगवान ने कहा- हे देवि ! तुम्हारी सम्) जो इच्छा हो, बर माँगो । शतरूपा ने कहा-हे कृपालु स्वामी ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा है। प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई ॐ जदपि भगत हित तुम्हहिं सुहाई है तुम्हें ब्रह्मादि जनक जग स्वामी ॐ ब्रह्म सकल उर अंतरजामी सुमा । तो भी हे स्वामी ! बहुत धृष्टता हो रही है; यद्यपि भक्तों का कल्याण राम्रो । आपको प्रिय लगता है और आप ब्रह्मा आदि के उत्पन्न करने वाले, जगत् के ?

१. मुझे या मुझ से ।