पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१४१

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। १३८ मा ईट भन/ ॐ हरि हर विमुख धरम रति नाहीं ॐ ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं हैं। तेहि गिरि पर बट बिटप विसाला ॐ नितं नूतन सुन्दर सब काला राम्) | जो भगवान् विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में है श्रद्धा नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर बरगद राम्रो की एक बड़ा वृक्ष है, जो सदा नया और सुन्दर रहता है। एम् त्रिविध समीर सुसीतलि छाया ॐ सिव बिस्राम विटप सु ति गाया एक बार तैहि तर प्रभु यऊ ॐ तरु विलोकि उर अति सुखु भयङ | वहाँ तीन प्रकार का शीतल, मंद और सुगन्धित पवन चला करता है। उसकी छाया बड़ी ही शीतल है । वेदों ने गाया है कि वह वृक्ष शिवजी के विश्राम करने के लिये है। एक बार प्रभु ( शिवजी ) उस वृक्ष के नीचे गये, उसे देखकर ॐ उनके हृदय में बहुत आनन्द हुआ। के निज कर डासि नाग रियु छाला ॐ बैठे सहजहिं सम्भु कृपाला है। राम) कुंद इंदु दर गौर सरीरा ॐ भुज प्रलंब परिधन मुनि चीरा राम अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वाभाविक रीति से उस रामो पर बैठ गये । उनका शरीर कुन्द के फूल, चन्द्रमा और शङ्ख के समान गौर था। राम) भुजायें लम्बी थीं और वे मुनियों का वस्त्र ( वल्कल ) धारण किये हुये थे। तरुन अरुन अम्बुज सम चरना के नख दुति भगत हृदय तम हरना भुजॅग भूति भूषन त्रिपुरारी ॐ आननु सरद चंद छवि हारी उनके चरण नए लाल कमल के समान थे और उनके नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अन्धकार दूर करने वाली थी । साँप और भस्म ही उनके भूषण थे। उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरत्काल के चन्द्रमा की छबि को फीका करने वाला था। - जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।। सुमो नीलकंठ लावन्य निधि सह बाल बिधुमाल ॥१०६॥ उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गंगाजी थीं। उनके बड़े-बड़े नेत्र * कमल के समान थे । उनके गले में नीला चिन्ह था और वे सुन्दरता के हैं को भण्डार थे । उनके मस्तक पर द्वितीया को चन्द्रमा शोभायमान था। १. विछाकर ! २. शंख । |