पृष्ठ:रामचरित मानस रामनरेश त्रिपाठी.pdf/१०६

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  • * बेदसिश मुनि आइ तब सबहिं कहा ससुझाइ । एम् पारबती महिमा सुलत रहे प्रवाह पाई ॥७३॥ एमा

। तब वेदशिरा मुनि ने अकिर सबको समझाकर कहा। पार्वती की महिमा 'सुनकर सबको समाधान हो गया। । उर धरि उमा प्रानपति चरना $ जाइ बिपिन लागी तषु करना ॐ अति सुकुमार न तनु तप जोगू % पति पद सुमिरि तजेड सव भोगू राम) प्राणपति शिवजी के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वती वन में जाकर । के तप करने लगीं । पार्वती का बहुत सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था; पर तो राम) भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंने सब भोगों को तज दिया। नित नव चरन उपज अनुरागा ॐ विसरी देह तपहि मन लागा है। । राम संबत सहस मूल फल खाए ॐ सागु खाइ सत वरप गवॉए । ' उनके हृदय में पति के चरणों में नित्य नया प्रेम उत्पन्न होने लगा और तप । ए में ऐसा मन लगा कि देह की सारी सुध बिसर गई। एक हज़ार बरस तक उन्होंने । मूल और फल खाये और फिर सौ बरस साग-पति खाकर बिताये ।। कछु दिन भोजनु वारि बतासा ॐ किए कठिन कछु दिन उपवासा बेलपाति सहि परै सुखाई के तीनि सहस संवत सोइ खाई कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठिन उपवास किया। बेल-पत्र जो धरती पर गिरकर रसूख जाते थे, तीन हज़ार वर्प तक उन्हीं को खाया। । पुनि परिहरे सुखानेउ परना' ॐ उमहि नासु तव भयउ अपरना ॐ देखि उमहिं तप खीन सरीरा ॐ ब्रह्मगिरा भइ गगन गॅभीरा फिर सूखे पत्ते भी छोड़ दिये, तभी से पार्वती का नाम अपर्णा हुआ । तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गम्भीर ब्रह्म-वाणी हुई।। अयउ मनोरथ सुफल तव सुलु गिरिराज कुसारि। परिहरुडुसह कलेस सब अब सिलिहहिंत्रिपुरारि ।७४। सन् “हे पर्वतराज की पुत्री ! सुन । तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सचे १. पत्ता । .-Fr-हा--"-" - - -

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