पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९९

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९२४ रामचरित-मालस। को अर्पण करते हैं। परन्तु ब्रह्मा ने विश्व की रचना कर के कुम्भकर्स को भक्षण के लिए अर्पण नहीं किया है, मुरड के झुण्ड वीरों को साथ ही खाते देख कर इस अहेतु को हेतु ठहरा कर कविजी ने उत्प्रेक्षा की है यह सिद्धविषया देतृत्प्रेक्षा अलंकार' है। कुस्लकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर-धारी ॥ देखी राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना विधि आई ॥m कुम्भकर्ण ने पानी सेना को तितर बितर कर दिया, यह सुन कर राक्षसी फौज चढ़ दौड़ी । रामचन्द्रजी ने देखो कि हमारी सेवा व्याकुल हो ही है और शत्रुदल अनेक प्रकार (लजधज कर) भाया है ४॥ देश-सुनु सुग्रीव बिभीषन, अनुज सँभारेहु सैन । मैं देखउँ खल-जल-दलहि, बोले राजिव नैन ॥७॥ अव कमल नैन रामचद्रजी बोले-हे सुग्रीव, विमीपण और लक्ष्मण सुनिए, भाप लाग सेना को सभाले (कोई तितर बितर न होने पावे)। मैं दुष्टों के दल का पराक्रम देखमा चाहता हूँ ॥६॥ चौ०-कर सारङ्ग साजि कटि भाथा । अरि दल दलन चले रघुनाथा । प्रथम कोन्ह प्रभु धनुष सकारा। रिपु-दल बधिर भयउ मुनि सारा ॥१॥ हाथ में शाई धनुप और कमर में तरकल सज कर शत्रु दल का संहार करने के लिए रघुनाथजी चले । पहले प्रभु ने धनुष की डोरी लीच कर शब्द किया, उस भीषण ध्वनि को सुन कर शशु की सेना वहरी हो गई (फान के पड़रे फट गये)१॥ सत्यसन्ध छोड़े सर लच्छा। कालसर्प चले सपमछां ॥ जहँ लहँ चले विपुल लाराजा । लगे कटन अट बिकट पिसाचा ॥२॥ सत्यसकल्प रामचन्द्रजीने लक्ष बाण छोड़े, वे ऐले बले मानों पहवाले काल कपी साँप हो । जहाँ वहाँ बहुत ले बाण चले, उनले भीषण पिशाच योगा कटने लगे ॥२॥ कहि चरन उर सिर झुजदंडा । बहुतक बीर होहिं सत खंडा ॥ घुर्मि धुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीं ॥३॥ किसी के पाँव, किसी की छाती, किसी के मस्तक और किसी की भुजाएँ कटती है, बहुत से वीर सौ सौ टुकड़े हो जाते हैं । घायल हो धूम घूम कर गिर पड़ते हैं, अच्छे योद्धा सँभल कर फिर उठते और लड़ते हैं ॥३n लागत बान जलद जिमि गाजहिँ। बहुतक देखि कठिन सर भाजहिँ । रुंड प्रचंड मुंड बिनु घावहिँ । धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं ॥४॥ बाण लगन पर बादल जैसा गर्जते हैं, बहुतेरे कठोर वाण देख कर भाग जाते हैं । बिना मस्तक की धड़ें सूब जोर से दौड़ती हैं और (जमीन पर पड़े हुए सिर) धरोधरो मारो मारो की आवाज़ पुकार रहे हैं मा