पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९९०

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" षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । फिर कुलमय समझ कर मन में धीरज धारण कर के बलवान वीर भरतजी हनूमान से वाले ॥२॥ खेद के साथ पश्चाताप करनो 'विषाद समचारी भाव' है और कुसमय विचार कर धीरज धारण करना 'धृति सञ्चारी भाव' है । बधीर शब्द साभिप्राय है क्योंकि जो असाधारण जली होगा वही पर्वत के सहित हनूमानजी को वाण पर बैठा कर रघुनाथजी के समीप पहुँचाने का साहस कर सकता है। तात गहरू हाइहि ताहि जाता । बाज नसाइहि होत प्रभाता ॥ चढ़ मम सायक सैल समेता । पठवउँ तोहि जहँ कृपानिकेता ॥३॥ हे तात! तुम्हें जाने में देरी होगी तो सवेरा होते ही काम बिगड़ जायगा । इसलिये पर्वत के सहित तुम मेरे बाण पर चढ़ लो, जहाँ कृपानिधान रामचन्द्रजी मैं तुमको वहाँ पहुँचा दूंगा ॥३ सुपेण वैध ने कहा था कि रात ही भर में सजीवनी अड़ी न आ जायगी ते सवेरा होते ही लक्ष्मणजी का शरीर प्राण-हीन हो जायगा । उस बात को हनुमानजी ने लंक्षेप वृत्तान्त कहते समय निवेदन किया था, वही भरतजी ने कहा है कि प्रभात होने से कार्य नष्ट हो जायगा। सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मारे भार चलिहि किमि बाना । राम प्रभाव बिचारि बहोरी । बन्दि चरन कह कपि कर जोरी ॥४॥ यह सुन कर हनूमानजी के मन में अभिमान उत्पन हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा। फिर रामचन्द्रजी के प्रताप को विचार कर चरण की बन्दना कर के पवनकुमार हाथ जोड़ कर बोले men दो-तक प्रताप उर राखि अनु, जैहउँ नाथ तुरन्त । 'अस कहि आयसुः पाइ पद, बन्दि चलेउ हनुमन्त । हे स्वामिन् ! आप के प्रताप को हृदय में रख कर मैं तुरन्त जाऊँगा। ऐसा कई माझा पाकर चरण में प्रणाम करके हनूमानजी चले । भरत बाहु बल सील गुन, प्रभु-पद-प्रीति अपार । मन मह जात सराहत, पुनि पुनि पवनकुमार ॥६॥ भरतजी का बाहुबल, शील, गुण और प्रभु रामचन्द्रजी के चरण में अपार प्रीति की सराहना बार बार पवनकुमार मन में करते जाते हैं ॥६॥ चौ०-उहाँ राम लछिमनहि निहारो। बाले बचन अनुज अनुहारी । अर्धराति गइ काप नहि आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥१॥ यहाँ रामचन्द्रजी लक्ष्मण को देख कर मनुष्या के समान वचन बोले। आधी रात बीत गई, पर हनूमान नहीं आये, रामचन्द्रजी ने छोटे भाई को उठा कर छाती से लगा लिया ॥१॥ A