पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९८५

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सामचरित मानस । सन्ध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएं लौटी, यूथपति अपनी अपनी सेना.संभालने लगे अर्थात् कितने वीर आज के युद्ध में काम.नाये हैं ॥२॥ व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेश्वर । लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर । तबलगि लेन आयउ हनुमाना । अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ॥३॥ सर्वव्यापी परब्रह्म किसी से न जीते जानेवाले, लोकों के स्वामी, दया की खान, राम- चन्द्रजी ने पूछा--लक्ष्मण कहाँ हैं १ तब तक उन्हें हनूमानजी ले आये, छोटे भाई को देख कर प्रभु ने अत्यन्त दुःख माना ॥३॥ जामवन्त कह बैद सुना। लङ्का रह कोउ पठइय लेना । धरि लघु-रूप गयउ हनुमन्ता। आनेहु भवन-समेत तुरन्ता ॥४॥ जास्ववान ने कहा- -सुषेण वैध लङ्का में रहता है उसे ले पाने के लिये किसी को भे. जिए । हनूमान छोटा रूप धारण कर के गये और तुरन्त ही घर समेत उसको ले आये ran जाना और वैद्य को तुरन्त ही ले पाना, कारण कार्य एक साय होना 'अक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है । यहाँ छोटा रूप धारण करने तथा वैद्य को घर सहित ले आने का हेतु विना कहे कठिन सा मालूम होता है, पर जान लेने से सरल 'अस्फुट गुणीभून व्यंग है' छोटा कप इसलिये किया जिसमें कोई देख न सके और शीघ्र लौटने में बाधा न उपस्थित हो । वैद्य को भवन समेत इस कारण ले प्राये कि जिसमें औषधि न रहने का बहाना न कर सके। दो०-रघुपति-चरन सरोज सिर, नायउ आइ सुषेन । कहा नाम गिरि औषधी, जाहु पवन-सुत लेन ॥५५॥ सुषेण ने आकर रघुनाथजी के चरण-कमलों में मस्तक नवाया - और पर्वत तथा औषधी का नाम बतलाया, (तब रामचन्द्रजी ने) पवनकुमार से कहा जा कर ले प्राओ ॥५५॥ अध्यात्म रामायण में रामचन्द्रजा ने स्ववम् पर्वत और सौपधी का नाम हनुमानजी को बतलाया है । वाल्मीकीय में जाम्ववान ने श्रादेश किया है। कहीं कहीं सुषेण बन्दर को वैध कहा है । यहाँ गुसांईजी लङ्कानियाली राक्षस को सुपेण वैध कहते हैं। हनूमानजी ने प्रभु की आज्ञानुकूल कार्य करने को गीतावली में इस प्रकार कहा है-जौ हौं तंव अनुशासन पावो । तौ चन्द्रमहि निचोरि चैल ज्यों, आनि सुधा सिर नावों ॥१॥ के पाताल दखाई ज्यालावलि, अमृत-कुण्ड महि ल्यावो । भेदि भुवन करि भानु बाहिरो, तुरत राहु दे तावो ॥२॥ विबुध-वैद घरबस धान धरि, तौ प्रभु अनुग कहा। पटकई मीच नीच मूषक ज्यों, सबको पाप बहावों ॥३॥ तुम्हारहि कृपा प्रताप विहारेहि, नेकु विलम्ब न लावों। दीजे सोइ प्रायसु तुलसी प्रभु, जेहि तुम्हरे मन भावों ॥४॥ गुटका में रामपदारविन्द सिर' पाठ चौ राम-चरन-सरसिज उर राखी । चला प्रभजन-सुत बल भाखी ॥ उहाँ दूत एक मरम जनावा । रावन कालनेमि गृह आवा ॥१॥ इस तरह पवनकुमार बल वर्णन कर और रामचन्द्रजी के चरण-कमलों को हदस में रख कर चले । वहाँ एक गुप्तचर ने यह भेद सूचित किया, तब रावण कालनेमि के घर आया ॥१॥ 1 ।