पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६९

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f रामचरित-मानस । तासु मुकुद तुम्ह चारि चलाये । कहहु तात कवनी विधि पाये। सुनु सर्वज्ञ प्रनत-सुखकारी । मुकुट न होहिं भूप-गुन-चोरी ॥४॥ हे तात! उसके चार मुकुट तुमने फेंके, वे किस तरह मिले! कहिए । माद ने कहा-हे सर्वज्ञ, भक्तजनों के सुखकारी ! सुनिए, वे मुकुट नहीं, राजाओं के चार गुण हैं ॥४॥ सत्य मुकुट को अलत्य ठहरा कर उपमान रूपी असत्य चार-गुण का स्थापन करमा शुद्धापति अलंकार है । 'सर्वज्ञ' शब्द में लक्षणामूलक गुणीभूत घ्यन है कि, आप सब जानते हैं केवल दास को श्रानन्द देने के लिए पूछते हैं। साम दान अरु दंड बिदा । छप उर बसहि नाथ कह बेदा ॥ नीति धरम के चश्न सुहाये । अस जिय जानि नाथ पहिँ आये ॥५॥ हे नाथ वेदों ने कहा है कि सोम, दोम, दण्ड और भेद राजाओं के हृदय में निवास करते हैं । के सुन्दर नीति और धर्म के चरण हैं, मन में यह समझ कर स्वामी के पास 'श्राये हैं ॥५॥ दो-धरम-हीन प्रभु-पद-विमुख, काल-बिबस-दससीस । तेहि परिहरि गुन आयउ, सुनहु कोसलाधीस ॥ हे कोशल नाथ ! सुनिए, रावण धर्म से रहित, स्वामी के चरणों से विमुख और काल के वश में हुआ है। इसलिए ये गुण उसे छोड़ कर आये हैं। चाय गुण रावण को छोड़ कर आपके समीप पाये हैं, इस बात का समर्थन अनोखी युक्तियों से करना कि रावण धर्म हीन, प्रभु-पद विसुखी और कालाधीन हो रहा है इस लिए श्राये 'काव्यलिंग अलंकार है। परम-चतुरता खवन सुनि, बिहँसे राम उदार । समाचार पुनि सब कहे, गढ़ के बालिकुमार ॥३॥ उदार रामचन्द्रजी अङ्गद की अत्यन्त चतुराई भरी बात कान से सुन कर हँसे । फिर बालिकुमार ने गढ़ के सब समाचार कह सुनाये ॥ ३ ॥ चौ०-रिपु के समाचार जब पाये। राम सचिव सब निकट बोलाये ॥ लङ्का बाँके चारि दुआरा । केहि विधि लागिय करहु बिचारा ॥१॥ जब शश्च के समाचार मिले, तब रामचन्द्रजी ने सब मन्त्रियों को समीप बुला कर कहा-लका के चारों दरवाजे विकट हैं; किस तरह लगना (घेरा डालना) चाहिए, इस बात को स्थिर कीजिए ॥१॥ तब कपीस रिच्छेस बिभीषन । सुमिरि - हृदय दिनकर-कुल-भूषन । करि विचार तिन्ह मन्त्र दृढ़ावा । चारि अनी कपि-कटक बनावा ॥२॥ तब सुग्रीव, जाम्बवान और विभीषण ने दृश्य में सूर्यकुलभूषण (रामचन्द्रजी) का , 1 1 .