पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६५

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6 FO रामचरित मानसी गहसि न राम-चरन सठ जाई । सुनत फिरा मन अति-सकुचाई ॥ भयउ तेज-हत श्री सब गई । मध्य-दिवस जिमि ससि साहई ॥२॥ अरे भूर्ख ! जाकर रामचन्द्रजी के चरणों को क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनते ही रावण मन में बहुत लज्जित होकर फिरा । सारी शोमा जाती रही; वह इस मरद तेज हीन हो गया, जैसे दिन में चन्द्रमा प्रकाश रहित दिखाई पड़ता है ॥ २ ॥ चाच्याथ को छोड़ कर प्रशोभन' व्यज्जित करना अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि है। पूर्वार्द्ध के दोनों घरण चौपाई और उत्तरार्द्ध के दोनों चरण चौथोला छन्द हैं। सिंहासन बैठेउ सिर लाई । सानहुँ सम्पति सकल गंवाई। जगदातमा-प्रानपति-रामा । तासु बिमुखं किमि लह बितामा ॥३॥ सिंहासन पर नीचे सिर करके बैठ गया, ऐसा मालूम होता है मानों सारी सम्पति खो दी हो । रामचन्द्रजी प्राणेश्वर और जगत के आत्मा हैं, उनसे विमुख होकर रावण कैसे चैन पा सकता है ? ॥३॥ उमा राम को भृकुटि-बिलासा । होइ बिस्न पुनि पावइ नासा ॥ छन कुलिस कुलिस उन करई । तासु दूत पन कहु किमि टरई ॥४॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! रामचन्द्रजी के भौंह के विलास (इशारे) से संसार उत्पन्न होता और फिर नाश को प्राप्त होता है । जो तिनके को वन और वजा को तिनका कर देते हैं, भला कहो तो सही ! उनके लेवक को प्रतिक्षा कैले टल सकती है ? ॥ अङ्गद का पण नहीं टलनेवाला है, इसका कारण कि वह उन रामचन्द्रजी का दूत है जिनकी भृकुटी धूमने से उत्पचि-प्रलय होती है और जो वन को तृण तथा तृण को वज्र बना देते हैं। इस अनोखी युक्ति से समर्थन 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। पुनि कपि कही नीति विधि नाना। मान न तासु काल नियराना । रिघु-मद-मथि-मा-सुजस सुनायो। यह कहि चलेउ बालि-नृप-जायो॥५॥ फिर श्रशद ने नाना प्रकार की नीति कही, पर उसकी मृत्यु समीप आगई है इस से नहीं माना । शत्रु के घमण्ड को चूर चूर कर प्रभु रामचन्द्रजी का सुयश सुनाया और राजा बाली के पुरे यह कह कर चले ॥५॥ हतउन खेत खेलाइ खेलाई । तोहि अबहिँ का करउँ बड़ाई ॥ प्रथलहिँ तासु तनय कपि मारा । सो सुनि रावन भयउ दुखारा ॥६॥ जब तक संग्राम-भूमि में तुझ को खेला खेला कर नहीं मारता हूँ, तब तक :अभी बड़ाई क्या कर। अङ्गद ने पहले ही उसका पुत्र (जो लङ्का में प्रवेश करते समय) मारा था वह सुन कर रावण दुखी हुआ॥६॥