पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९६२

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. लांगे। षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड रे त्रिय-चोर कुमारग-गामी । खल मल-रासि मन्द-मति कामी। सन्निपात जल्पसि दुर्शदा । भोलि काल-बल खल मनुजादा ॥३॥ रेखी-चोर, कुमार्ग-धामी, दुष्ट, पाप की राशि, नीच-बुद्धि, कामी, दुराचारी राक्षस ! त सन्निपात से काल के अधीन हुआ है, इसी से दुर्वचन यकता है ॥३॥ याको फल पाबहुगे आगे। बानर भालु-चपेटन्हि राम-मनुज बोलत अलिबानी । गिहि न तव रसना अभिमानी ॥४॥ इसका फल धागे पायोगे, (जब इन मुखों पर) वानर-भालुओं के तमाचे लगेंगे। राम: चन्द्रजी मनुष्य हैं ऐसी वाणी बोलने पर, अरे अभिमानी ! जिल्हा नहीं गिर जाती ? ॥ गिरिहहि रसना संसय नाहीं । सिरन्हि समेत समर सहि माहीं ॥५॥ जीम गिरेंगी इसमें सन्देह नहीं, पर वे रणभूमि में सिरो के सहित गिरेंगी ॥५॥ सो०-सो. नर क्यों इसकन्ध, बालि बधे जेहि एक सर । बीसहु लोचन अन्ध, धिग तब जनम कुजाति जड़ ॥ हे रावण वे मनुष्य कैसे हैं जिन्हों ने एक हा वाण से बाली को मार डाला योलों आँख से अन्धा है ? अरे मूर्ख कुजावी ! तेरे जन्म को धिकार है। तब सातति की प्यास, दृषित राम सायक-निकर । तज ताहि तेहि त्रास, कटु जल्पक निखिचर अधम ॥३३॥ रामचन्द्रजी के वाण-समूह तेरे खून के प्याले हैं। अरे कड़वी बात धकनेवाला, अधम राक्षस! उन (पाणों) के डर से मैं तुझको छोड़ता हूँ ॥३३॥ रावण को जीवित छोड़ने की बात कह कर उसका युक्ति ले समर्थन करना कि मैं बाणों के भय से नहीं मार सक्तो काध्यलिई है। चाo-मैं तव दसन तारिबे लायक । आयसु मेाहि न दीन्ह रघुनायक ॥ अस रिसि होत दसउ मुख तारउँ । लङ्का गहि समुद्र महँ बोरउँ ॥१॥ मैं तेरे दाँत को तोड़ने योग्य हूँ, पर रघुनाशजी ने मुझे भाशा नहीं दी है। ऐसा क्रोध होता है कि तेरा दस मुख तोड़ डालू और लता को पकड़ (उखाड़) कर समुद्र में डुश हूँ ॥१॥ गूलरि-फल-समान तन लङ्का । बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का ॥ मैं बानर फल खात न बारा । आयसु दीन्ह न राम उदारा ॥२॥ तुम्हारी लागूंजर-फल के समान, है उसके बीच में जन्तु ( मसा) रूप तुम निर्भय निवास करते हो। मैं बन्दर हूँ, फल खाते देरी नहीं पर उदार रामचन्द्र जी ने (ऐसा करने के लिए) माशा नहीं दी है ॥२॥