पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९४९

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8 रामचरितमानस कर लीजिए, उनके पैर से कल्याणं न होगा । रावण ने क्रोधित हो कर उस दूत को तुरन्त मारडाला । वही श्रद कहते हैं कि तू जैसी दूत-रक्षा करता है, उसे मैं ने . आँख से देखा है। कान नाक बिलु भगिनि निहारी। छमा कोन्हि तुम्ह धरम बिचारी ॥ धरमसीलता तब जग जागी । पावा दरस हमहुँ बड़ भागी ॥४॥ तुमने अपनी बहन को बिना कान और नाक की देख धर्म विचार कर क्षमा की। तुम्हारी धर्मशीखता संसार में प्रसिद्ध है, हम भी बड़े भाग्यशाली हैं जो ऐसे धर्मात्मा को दर्शन पाया ! ॥8 रावण की प्रशंसा करने पर भी काकु से निन्दा प्रकट होना व्याजनिन्दा अलंकार' है। दो०- जनि जल्पसि जड़ जन्तु कपि, लठ बिलोकु मम बाहु । लोकपाल बल बिपुल ससि, असन हेतु सब राहु ॥ रावण योला-भरे जड़ जीय, बन्दर ! मूर्ख ! मत वकवाद कर, मेरी भुजाओं को देन । लोकपालों के बल रूपी समूह चन्द्रमा को प्रसने के लिये ये सब राष्ट्र हैं। चन्द्रमा और राहु एक एक है; किन्तु 'विपुल तथा सव' ये दोनों शन्द अधिकता का भाव सूचित करते हैं। पुनि नम-सर मम-कर-निकर, कमलन्हि पर करि बास । सोभित भयउ मराल इव, सम्भु सहित कैलास ॥२२॥ फिर भामाश रूपी सरोवर में मेरे समूह हाथ रूपी कमलों पर कैलास पर्वत के सहित निवास करके शिवजी हंस की तरह शोभित हुए हैं ॥२२॥ कमल के फूल राजहंस का भार नहीं सह सकते, पर मेरे कर कमले पर कैलास के सहित शिवजी हल के समान ठहरे थे, इस अधिकता से अधिक अभेद रूपक अलंकार' है। श्राकाश का आरोपण तालाब पर, हाथों पर कमल और शिवजी तथा कैलास पर हंस का आरोप परम्परित है । इस रूपक में काव्यार्थापति अलंकार की ध्वनि है कि जिन भुजाओं ने कैलास सहित शिवजी को उठा लिया ! उनके सामने तेरा मालिक चीज़ ही क्या है । कोई कोई । 'मराल अलिशावक के आधार पर मराल शब्द का भ्रमर का वच्चा अथ करते हैं। वह इस अभिप्राय से कि हंस का भार कमल-पुष्प नहीं सँभाल सकता, तर्क ठाक है। परन्तु यहाँ रावण जान बूझ कर अधिकता सूचित करता है, इसके विपरीत अर्थ भ्रमर के बच्चे का खींचतान कर करने से अलंकार की शोभा बिगड़ जाती है। चौ-तुम्हरे कटक माँक सुनु अङ्गद।मो सन तिरिहि कवन जोधा बद। तव प्रक्षु नारि-बिरह बल-हीना । अनुज तासु दुख दुखी मलीना ॥१॥ भरे अङ्गद ! सुन, कह तो सही ! तेरे कटक में कौन योद्धा मुझ से भिड़ेगा ? तेरा स्वामी