पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३६

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। । षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड। कोउ कह जब निधि रति-मुख कीन्हा। सार भाग सखि कर हरि लीन्हो । छिद्र से भंगट इन्दु उर माहौँ । तेहि भग देखिय नभ परिछाहीं ॥४॥ किसी ने कहा-जच ब्रह्मा ने रति का मुख बनाया, तब चन्द्रमा का सार भाग (बीच का हिस्सा) हर लियां । वही छेद चन्द्रमा की छाती में प्रत्यक्ष हो रहा है, उसी से प्राकाश की परछाही दिखाई देती है। रति के मुख की अतिशय शोभा कार्य रूप है, उसे न कह कर यह कहना कि प्रमा ने चन्द्रमा का सार भाग हर लिया, यह कारण निवन्धना अप्रस्तुतप्रशंसा अलंकार है। सुग्रीव के अनन्तर कथन क्रमशः विभीषण और अंगद के हैं, किन्तु कविजी ने उनके सन्मानार्थ स्पष्ट नाम नहीं लिया। प्रभु कह गरल बन्धु ससि केरा। अतिप्रिय लिज उर दीन्ह बखेरा। विष सज्जुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवन्त नर नारी ॥५॥ प्रभु ने कहा-विष चन्द्रमा का अत्यन्त प्यारा भाई है, इससे अपने हदय में उसे ठहरने को जगह दिया । विष के सहित समूह फिरण फैला कर विरही स्त्री-पुरुषों को जलाता है nun चन्द्रमा में विष का निवास होना असिद्ध आधार है, इस हेतु में बिना बालक पद के हेतु की कल्पना करना, 'असिद्ध विषया गम्यतत्प्रेक्षा अलंकार' है। दो०-कह मारुत-सुत सुनहु प्रभु, ससि तुम्हार प्रिय दास । तव भूरति बिधु उर बखति, खोइ स्यामता आस ॥ पवनकुमार ने कहा-हे स्वामिन् ! सुनिए, चन्द्रमा आपका प्यारा भक्त है। श्राप की मूर्ति चन्द्रमा के हदय में बसती है, वही श्यामता झलक रही है। चन्द्रमा के कालापन-उपमेय को प्रभु मूर्ति में उसका धर्म स्थापन करना 'तृतीय निद- र्शना अलंकार है। सभा की प्रति में 'निज दास, पाठ है । यहाँ सपने अपनी अपनी भावना के अनुसार ही चन्द्रमा में श्यामता की कल्पना की है। सुग्रीव राजा हैं इन्हें सर्वत्र भूमि ही दिखाई पड़ती है, इससे भूमि की छाया कही । विभीषण रावण द्वारा माइत हुए हैं, उन्होंने मारा जाना कहा। पिता के बाद अंगद को राज्य मिलना था, वह छिन गया है इससे सार भाग का इन्होंने अपहरण कहा। प्रभु विरही हैं, उन्होंने युति से विषैला पतलाया और हनू मानजी अनन्य भक्त हैं, इसलिए उन्हों ने स्वामी के अए का निवास कहा। पवन-तनय के बचन सुनि, बिहंसे राम सुजान । दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु, बोले कृपानिधान ॥१२॥ वायुनन्दन की बात सुन कर सुजान रामचन्द्रजी मुस्कुराये। फिर कृपानिधान प्रभु पक्षिय दिशा की ओर निहार कर बोले ॥१२॥