पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८१

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CON कपि सुभाव रामचरित मानस। अलंकार' है। यश पाने के स्थान में काकु से विपरीत अर्थ 'अयश पाना भासिा होना 'वक्रोक्ति अलंकार' है। यह तीसरे प्रश्न का उत्तर है। खायेउँ फल प्रभु लागी भूखा। ते तारेउ रुखा ॥ सब के देह परम प्रिय स्वामी। मारहिँ माहिँ कुमारग-गामी ॥२॥ हे राजन ! मुझे भूख लगी थी इस फल खाया और वन्दर का स्वभाव होता है इससे वृक्षों को तोड़ा । राजन् ! सब को अपना शरीर प्यारा है, ये कुचाली राक्षस मुझे मारने लगे ॥२॥ जिन्ह माहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउ तनय तुम्हारे ॥ मोहि न कछु बांधे कइ लाजा । कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥३॥ जिन्होंने मुझे मारा मैं ने भी उनको मारा, तिस पर तुम्हारे पुत्र (मेघनाद) ने मुझे बाँध 'लया। मुझे बन्धन की कुछ लज्जा नहीं है, मैं अपने स्वामी का कार्य करना चाहता हूँ ॥३॥ राक्षसों को किस अपराध से माग और तुझे अपने प्राणों को डर नहीं है ? इस चाये और पाँचवे प्रश्न का उत्तर यहाँ तक पूरा हो गया। पत्र प्रार्थना पूर्वक शुभ उपदेश देते हैं। बिनती करउँ जारि कर रावन । सुनहु मान तजि मार सिखावन ॥ देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी । अम तजि भजहु भगत भयहारी ॥४॥ हे रावण ! मैं हाथ जोड़ कर विनती करता हूँ, अमिमान छोड़ कर मेरा सिखावन सुनो। अपने कुल को विचार कर देखा, (तुम विश्रवामुनि के पुत्र और पुलस्त्यऋषि के नाती हो) भ्रम त्याग कर भाग भयहारी रामचन्द्रजी का भजन करो ॥ ४॥ जाके डर अति काल डेराई । जो सुर अर चराचर खाई ॥ तासाँ बैर कबहुँ नहिं कीजै । मारे कहे जानकी दीजै ।। जिनके डर से महाकाल भी डरता है जो देवता, दैत्य और जड़-चेतन को खा जाता है। उनसे कभी वैर न कीजिये, मेरे कहने से जानकोजी को उन्हें दे दीजिये ॥५॥ दो०-प्रनतपाल रघुनायक, करुनासिन्धु खरारि । गये सरन प्रभु राखिहहिँ, तव अपराध बिसारि ॥२२॥ रघुकुल के खामी, शरणागतों के रक्षक, दया के समुद्र, खर के वैरी, प्रभु रामचन्द्रजी शरण जाने पर तुम्हारे अपराधों को भुला कर रक्षा करेंगे ॥ २२ ॥ चौ०-राम चरन-पङ्कज उर धरहू । लङ्का अचल राज तुम्ह करहू । रिषि पुलस्ति जस बिमल मयङ्का तेहि ससि महँ जनिहाहु कलङ्का॥१॥ रामचन्द्रजी के चरण कमलों को हदय में रख कर तुम लङ्का में अचल राज्य करो। पुलस्त्य ऋषि का यश निर्मल चन्द्रमा रूप है, उस चन्द्रमा में कलङ्क मत हो ॥१॥