पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६०१ पञ्चल सोपान, सुन्दरकाण्ड । कुघलय विपिन कुन्त बन सरिसा । बारिद तपत तेल जनु परिक्षा । जे हित रहे करत तेइ पीरा । उरग स्वास सम त्रिबिधि समीरा ॥२॥ कुमुद के वन भाला के जगत के समान हो गये हैं, वर्षा ऐसी मालूम होती है मान चावल तपाया हुआ तेल बरसते हो । जो हितकारी (सुख देनेवाले) थे वे हा दुःख दे रहे हैं, तीनों प्रकार के (शीतल, मन्द, सुगन्धित) पवन साँप के फुफकार के समान लगते हैं ॥२॥ संभा की प्रति में 'जेहि तर रहे करत तेह पीरी पाठ है। उसका अर्थ होगा कि-"जिस वृक्ष के नीचे रहता हूँ, वही दुःख देते हैं"। कहेहू तें कछु दुख घटि होई । काहि कहउँ यह जान न कोई । तत्व प्रेस कर सम अरु तारा । जानत प्रिया एक मन मेरा ॥३॥ कहने से भी कुछ दुख की घटती होती है। परन्तु किससे कहूँ, इस दुःख को कोई जाना नहीं। हे प्रिये ! हमारे और तुम्हारे प्रेम के तत्व (यथार्थता) को एक मेरा ही मन जानता है ॥३॥ सो मन सदा रहत ताहि पाहीं । जानु प्रीति रस एतनेहिँ माहौँ । प्रभु सन्देस सुनत बैदेही । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ॥४॥ घह मन सदा तुम्हारे पास रहता है, वल ! इतने में प्रीति का रस (स्वाद) जान लेना। इस तरह स्वामी के सन्देशे को सुन कर जानकोजी प्रेम में मग्न हो गई, उनको अपने शरीर की सुध नहीं रही ॥ प्रीति-रस का जाननेवाला मन मेरे पास नहीं है, हेतसूचक बात कह कर पुष्टि करना 'काव्यलिज अलंकार' है। प्रेममय स्वामी के सन्देशे को सुन कर प्रीति और अभिलाषा से सीताजी की कमेन्द्रियों की गति रुक जाना स्तम्भ सात्विक अनुभाव है। कह कपि हृदय धीर धरु माता । सुमिरु राम सेवक-सुख दाता ॥ उर आनहु रघुपति प्रभुताई । सुनि मम बधन तजहु कदराई ॥५॥ हनुमानजी ने कहा-हे माता! हदय में धीरज धरिये, सेवकों के सुख देने वाले राम- चन्द्रजी का स्मरण कीजिये । रघुनाथजो को महिमा को हृदय में ले भाइये और मेरो घात सुन कर कादरता को त्याग दीजिये। दो०-निसिचर निकर पतङ्ग सम, रघुपति बान कृतानु । जननी हृदय धीर धरु, जरे निसाचर जानु ॥१५॥ रोक्षसवृन्द पाँखी के समान हैं और रघुनाथी के घाण अग्नि रूप हैं। हे माता दय में धीरज धरिये और राक्षसों को जला हुआ समझिये ॥१५॥ वाण अभी चले नहीं, पर शत्रुओं को उससे जला हुआ कहना अर्थात् कारण के पहले ही कार्य का प्रकट होना अत्यन्तातिशयोक्ति अलंकार' है। .