पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७३

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६00 रामचरितमानस २० अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी । अनुज सहित सुख-भवन-खरारी । कोमल चित कृपाल रघुराई । कपि केहि हेतु धरी निठुराई ॥२॥ मैं अब तुम्हारी बलि जाती हूँ, खर के बैरी सुख के स्थान रामचन्द्रजी की छोटे भाई लक्ष्मण के सहित कुशल कहो। हे हनूमान ! रघुनाथजी तो कोमल-चित और दयालु हैं, इतनी निर्दयता उन्हों ने किस कारण धारण की है ? ॥२॥ सहज बानि सेवक सुखदायक । कबहुँक सुरति करत रघुनायक ॥ कबहुँ नयन भम सीतल ताता। होइहि निरखि स्याम-मृदु-गाता॥३॥ जिनका सहज स्वभाव सेवकों को सुख देने, का है, वे रघुनाथजी की मेरी सुध करते हैं ? हे तात ! उनके श्यामल कोमल श्रों को देख कर कभी मेरे नेत्र शीतल होंगे P३॥ बचन न आव नयन भरि बारी । अहह नाथ हैंौँ निपट बिसारी ॥ देखि परम बिरहाकुल सीता । बोला कपि मृदु बचन बिनीता ॥४॥ उनको वाणी रुक गई, आँखों में आँसू भर कर/कहने लगी...हाय नाथ ! आपने मुझे सब प्रकार से भुला दिया। सीताजी को अत्यन्त विरह से व्याकुल देख कर हनूमानती मन्नतापूर्वक कोमल वाणी से बोले || मातु कुसल प्रहुं अनुज समेता । तव दुख दुखी सुकृपा-निकेता।। जान जननी मानहु जिय ऊना। तुम्ह , प्रेम राम के दूना ! हे माता! स्वामी रामचन्द्रजी छोटे भाई के सहित कुशल-पूर्वक हैं, किन्तु सुन्दर दया के स्थान आप के दुःख से दुःखी हैं । हे जननी ! आप अपने मन में कुछ भी हीनता न मानें, आप से दूना प्रेम रामचन्द्रजी को है ॥५॥ दो०-रघुपति कर सन्देस अब, सुनु जननी धरि धीर। अस कहि कपि गदगद भयउ, भरे बिलाचन नीर ॥१४॥ हे माता ! अब धीरज धर कर रधुनाथजी का लन्देशा सुनिये, ऐसा कह कर हनूमानजी गदगद कण्ठ हो गये और आँखों में आँसू भर आया ॥ १४ ॥ हनूमानजी को खामी की बात स्मरण कर स्वरभङ्ग और प्रभु सात्विक अनुभाव का उदय हो पाया। चौ०-कहेउ राम बियोग तव सीता। मा कह सकल भये बिपरीता। नव तरु किसलय मनहुँ कसानू । कालनिसा सम निसि ससि-भानू ॥१॥ रामचन्द्रजी ने कहा है-हे सीता! तुम्हारे वियोग में मुझ को सब उलटे हुए हैं। नये वृक्षों के कोमल खाल पत्ते ऐसे मालूम होते हैं मानो अग्नि हो, रात कालरात्रि के समान और चन्द्रमा सूर्य के तुल्य हो रहे हैं ॥१॥ .