पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८६२

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७६१ २१ पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । दो-तब हनुमन्त कही सब, राम कथा निज नाम । सुनत जुगल तन पुलक मन, मगन सुमिरि गुन ग्राम ॥६॥ तय हनूमानजी ने रामचन्द्रजी का सब समाचार कह कर अपना नाम बतलाया । सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गये, रघुनाथजी के गुण-समूह को स्मरण कर मन में मग्न चौ०-सुनहु पवन-सुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महँ जीम विचारी। तास कबहुँ माहिजानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल-नाथा॥१॥ विभीषण ने कहा-हे पवनकुमार! हमारी रहने की रीति सुनिये, जैसे दाँतो के घोच में बेचारी जीभ रहती है । हे तात ! मुझे अनाथ जान कर सूर्य कुल के स्वामी रामचन्द्र जी कभी कृपा करेंगे? विमा हनूमानजी के पूछे ही विभीषण अपने दुःख की कहानी कहने लगे। इसमें मूढ़ अभिप्राय अपनी दीनता दिखा कर रामदूत की कृपा सम्पादन करने का है। यह कल्पित प्रश्न का 'गूढोत्तर अलंकार' है। तामस तनु कछु साधन नाहौँ । प्रीति न पद-सरोज मन माहीं ॥ अब माहि भो भरोस हनुमन्ता । बिनु हरि कृपा मिलहिँ नहिँ सन्ता ॥२॥ मेरा तमोगुणी शरीर है (स्वामी को प्रसन करने योग्य मेरे पास ) कुछ साधन नहीं है और न मन में चरण-कमलों में प्रीति ही है। परन्तु हे हनुमानजी ! अब मुझे यह भरोसा हो रहा है कि बिना भगवान की कृपा के सन्त-जन नहीं मिलते ॥२॥ तत्वानुसन्धान द्वारा विभीषण का यह निश्चय करना कि बिना भगवान की दया के सन्तजन नहीं मिलते 'मति सञ्चारीभाव है। उत्तरोत्तर अपना अपकर्ष कथन करने में 'सार अलंकार है। एक सज्जन का कथन है कि अपकर्ष में सार होता ही नहीं। अधिकांश अलंकारशास्त्रियों का यही मत है कि उत्तरोत्तर उत्कर्ष कथन में ही सार अलंकार होता है। परन्तु रसगङ्गाधर के मत से उत्तरोत्तर अपकर्ष में भी सार अलंकार माना गया है। जौँ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा । तो तुम्ह माहि दरस हठि दीन्हा ॥ सुनहु बिभीषन प्रभु के रीती । करहिं सदा सेवक पर प्रीती ॥३॥ जब रघुनाथजी ने कृपा की, तभी आपने मुझे हठ कर (बिना बुलाये आ कर और रात में सोते से जगा कर) दर्शन दिया । हनूमानजी ने कहा-हे विभीषण ! सुनिये, प्रभुरामचन्द्रजी ,की यह रीति' है कि वे सेवक पर सदा प्रीति करते हैं ॥३॥ कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चञ्चल सबही विधि होना ॥ प्रात. लेइ जो नाम हमारा । तेहि दिन ताहि न मिलइ अहारा ॥४॥ कहिये, में कौन से प्रत्युत्तम कुल का हूँ, बन्दर की जाति, चलबुद्धि और सभी तरह