पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८६१

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७९ रामचरितमानस । सयन किये देखा कपि तेही । मन्दिर महँ न दीख वैदेही । भवन एक पुनि दोख सुहावा । हरिमन्दिर तहँ भिन्न बनावा ॥१॥ हनूमानजी ने रावण को सोते हुए देखा, पर उस घर में भी जनकनन्दिनी नहीं देख पड़ी। फिर एक सुहावना गृह दिखाई पड़ा, वहाँ भगवान् का मन्दिर अलग बना हुआ है ॥en दो-रामायुध अङ्कित गृह, सेामा बरनि न जाइ ॥ नव तुलसिका चन्द तहँ, देखि हरष कपिराइ ॥शा उस मन्दिर में रामचन्द्रजी के हथियार (धनुप, वाण, चकादि) के चिन्द्र बने हैं जिसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नये नये तुलसी के वृक्ष-समूह को देख वानरराज हनूमानजी प्रसन्न हुए ॥५॥ चौ० लङ्का निसिचर तिकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥ सन महँ तरक करइ कपि लागा। तेही समय बिभीषन जागा ॥१॥ हनूमानजी मन में विचारने लगे कि लङ्का तो राक्षस-समूह के रहने की जगह है, यहाँ सज्जन को यसेरा कैसे घुमा १ उसी समय विभीषण जाग उठे ॥१॥ शङ्का निवारणार्थं पवनकुमार का मन में विचार करना 'वितर्क सञ्चारीभाव है। हनू- मानजी परिचय करना चाहते हा थे कि अकस्मात विभीषणके जाग पड़ने से वह कार्य सुगम हो गया 'समाधि अलंकार' है। राम राम तेहि सुमिरन कोन्हा । हृदय हरष कपि संञ्जन चीन्हा । एहि सन हुठि करिहउँ पहिचानी । साधु तँ हाइ न कारज हानी ॥२॥ उन्होंने राम राम स्मरण किया, उन्हें सज्जन पहचान कर हनूमानजी हृदय में प्रसन्न हुए और सोचा कि इन से हठ कर पहचान करूँगा, क्योंकि साधु से कार्य को हानि नहीं होती ॥२॥ बिप्र रूप धरि बचन सुनाये । सुनत विभीषन उठि तहँ आये ॥ करि प्रनाम पूछी कुसलाई । बिप्र कहहु निज कथा बुझाई ॥३॥ ब्राह्मण का रूप धारण कर वचन सुनाये, सुनते ही विभीषण उठ कर वहाँ आये । प्रणाम करके कुशलता पूछी और कहा कि हे ब्राह्मण ! अपना वृत्तान्त मुझे समझा कर कहिये (रात्रि के समय इस राक्षसपुरी में आप का विचरण कुतूहलजनक है) nan की तुम्ह हरिदासन्ह महँ कोई । मेरे हृदय प्रीति अति हाई ॥ की तुम्ह राम दोन-अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़-भागी ॥४॥ क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं ? आप के प्रति मेरे हदय में बड़ी प्रीति हो रही है। था कि आप दीनजनों पर प्रेम करनेवाले रामचन्द्रजी हैं ? जो मुझे बड़ा भाग्यवान बनाने आये हैं ॥३॥