पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३७

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रामचरित मानस । ७७० दो-एहि बिध होत बतकही, आये बानर जूथ । नाना बरन सकल दिसि, देखिय कीस वरूथ ॥२१॥ इस प्रकार बातचीत हो रही थी कि झुण्ड के झुण्ड यन्दर पाये। अनेक रहके सब दिशाओं में वानरों ही की गोल दिखाई देती है ॥२१॥ चौ०-बानर कटक उमा मैं देखा । सो मूरख जो करन चह लेखा ॥ आइ रामपद-नावहि माथा । निरखि बदनसब हाहि सनाथा ॥१॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! मैंने धानरों की सेना देखी थी, उसकी जो गिनती करना चाहे वह मूर्ख है। सब श्रा कर रामचन्द्रजी के चरणों में मस्तक नवाते हैं और श्रीमुख अव. लोकन कर कृतार्थ होते हैं ॥१॥ अस कपि एक न सेना माहीं । राम कुसल जेहि पूछी नाही ।। यह कछु नहि प्रभु के अधिकाई। विस्व-रूप व्यापक रघुराई ॥२॥ ऐसा एक भी बन्दर सेना में नहीं रह गया, जिससे रामचन्द्रजी ने कुशल न पूछी हो। प्रभु रघुनाथजी की यह कुछ बड़ी महिमा नहीं है, क्योंकि वे विस्वरूप और सर्व म्वापक है ॥२॥ ठाड़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सुग्रीव सबहि समुझाई ॥ राम-काज अरु मार निहोरा । बानर जूथ जाहु चहुँ ओरा ॥३॥ वे सव श्राशा पाने के लिए जहाँ तहाँ खड़े हैं, सुग्रीव सब को समझा कर कहने लगे कि रामचन्द्रजी का कार्य है और मुझ पर पहसान है, वानर-वृन्द चारों आर जाते जा ॥३॥ जनक-सुता कह खोजहु जाई । मास दिवस महँ आयहु भाई । अवधि मेटि जो बिन सुधिपाये । आवइ बनिहि सो मोहि मराये ॥४॥ भाइयो ! जो कर जानकीजी को ढूँढ़ो और महीने दिन में लौट पाना । जो विना खबर पाये अवधि विता कर आवेगा, वह मुझ से अवश्य ही मरवा डाला आयगा nan दो-चन सुन्नत सब बोनर, जहं तहँ चले तुरन्त । तब सुग्रीव बोलाये, अङ्गद नल हनुमन्त ॥२२॥ प्राज्ञा सुनते ही सब वानर जहाँ तहाँ तुरन्त चल पड़े। तब सुग्रीव ने अङ्गद, नल और हनुमानजी को बुलाया ॥२२॥ चौ-सुनहु नील अङ्गद हनुमाना । जामवन्त मतिधीर सुजाना सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहू। सीता सुधि पूछेहु सब काहू ॥१॥ सुग्रीव ने कहा- हे मतिधीर और सुजान नील,अङ्गद, हनूमान, जाम्बवान् ! सुनिए, आप सब योद्धा मिल कर दक्षिण जाइये और सीताजी का पता सब किसी से पूछना ॥३॥