पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३५

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, . ७८ रामचरित मानस । जी नगर में भाये, उन्हें क्रोधित देख कर बन्दर जहाँ तहाँ दोहे (कुछ सुग्रीव के पास, कितने ही ने हनूमानजी और भङ्गद को खबर दी) ॥४॥ हनुमानजी ने सब बन्दरों को यह भय दिखाया कि-पक्ष के भीतर न लौट आने पर भार डाले जाओगे । प्रीति--यह कि राजा के प्रेमपात्र हो कर पुरस्कार पाओगे । नीति यह कि स्वामी की आज्ञा पालन करना सेवक का परम धर्म है। दो०-धनुष चढ़ाइ कहा तब, जारि करउँ पुर छार । व्याकुल नगर देखि तब, आयउ बालिकुमार ॥१९॥ तव लक्ष्मणजी ने धनुष चढ़ा कर कहा कि मैं पुट को जला कर भस्म कर दूंगा । नगर को व्याकुल देख कर तप वालिकुमार- अहद-श्राये ॥ १६ ॥ नगर जड़ है, वह क्या व्याकुल होगा ? इससे नगर-निवासी का अर्थ प्रहण होना 'लक्षित लक्षणा' है। चौक-चरन नाइ सिर बिनती कीन्ही । लछिमन अभय बाँह तेहि दोन्हीं। क्रोधवन्त लछिमन सुनि काना । कह कपीस अतिभय अकुलाना॥१॥ चरणों में सिर नवाकर विनती की, लक्ष्मणजी ने उन्हें अभय-बाँह दी। लक्ष्मणजी को क्रोध से भरा हुआ कान से सुनकर सुग्रीव अत्यन्त भय से घबरा गये, कहा-॥१॥ सुनु हनुमन्त सङ्ग लेइ तारा । करि बिनती समुझाउ कुमारा॥ तारा सहित जाइ हनुमाना । चरन बन्दि प्रक्षु सुजस बखाना ॥२॥ हे हनूमान ? सुनिए साथ में तारा को लेकर जाइये और विनती कर के कुमार को सम- भाइये। तारा के सहित जाकर हनूमानजी ने चरणों की बन्दना कर के स्वामी का सुन्दर यश (जेहि करुणा कर कीन्ह न कोहू) वखान फिया ॥२॥ तारा के भेजने में सुग्रीव का हार्दिक अभिप्राय यह है कि अवध्य अबला को देख कर क्षमा करेंगे और इस के रूपलावण्य को देख कारण विचार कर मुझ पर दया भाव से द्रवीभूत हो जायगे 'युक्ति अलंकार' है। करि बिनती मन्दिर लेइ आये। चरन पखारि पलँग बैठाये ॥ तब कपोल चरनन्हि सिर नावा । गहि भुज लछिमन कंठ लगावा॥३॥ प्रार्थना करके उन्हें घर ले आये और पाँव धोकर पलंग पर बैठाया। तब सुग्रीव ने चरणों में सिर नवाया, लक्ष्मणजी ने वह पकड़ कर गले से लगा लिया ॥३॥ नाथ विषय सम मद कछु नाहीं । मुनि मन माह करइ छन माहीं । सुनत बिनीत बचन सुख पावा । लछिमन तेहि बहु विधि समुझावा॥४॥ सुग्रीव ने कहा-हे नाथ ! विषय के बराबर और कोई मद (नसा) नहीं है; जो क्षणमात्र में मुनियों के मन में मोह उत्पन्न करता है। इस तरह नम्रता की बात सुन कर लदमणजी प्रसन्न हुए और बहुत भाँति से सुग्रीव को समझाया ॥४॥