पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८३०

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चतुर्थ सोपान, किष्किन्धाकाण्ड | ७६३ धरहि जलद भूमि नियराये । जथा नवहिं बुध बिझा पाये । बुन्द-अघात सहहि गिरि कैसे । खल के बचन सन्त सह जैसे ॥२॥ पृथ्वी के समीप श्राफर बादल इस तरह वर्षा करते हैं, जैसे पण्डित लोग विद्या पाकर मन्न हो जाते हैं। बूंदों की चोट पर्वत कैसे सहते हैं, जैसे सन्तजन दुष्टों के कठोर चचन सह लेते हैं ॥२॥ छुद्र-नदी भरि चली तोराई । जस थोरेहु धन खल इतराई ।। भूमि परत भा ढाबर पानी । जनु जीवहि माया लपटानी ॥३॥ बोटी नदियाँ जल से भर कर सीमा तोड़ ऐसी बह चली हैं जैसे दुष्ट लोग थोड़े ही धन से मदान्ध हो जाते हैं। भूमि पर पड़ते ही पानी ऐसा मटमैला हो गया है मानों जीव को माया लिपटी हो.॥३॥ समिटि समिटि जल मरहिँ तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिँ आवा। सरिता जल जलनिधि महँ जाई होइ अचल जिमि जिव हरि पाई ॥४॥ बटुर बटुर कर पानी तालायों में भरता है, जैसे धीरे धीरे सद्गुण सज्जनों के पास आते हैं । नदियों का जल समुद्र में जाता है, जैसे परमात्मा को प्राप्त ( लोन ) होकर जीव निश्चल हो जाता है। दो-हरितभूमि तृन-सङ्कल, समुझि परहिँ नहि पन्थ । जिमि पाखंड-बिबाद से, गुप्त होहिं सदग्रन्थ ॥१४॥ घासों की परिपूर्णता से घरती हरी भरी हुई है, जिससे रास्ता नहीं समझ पड़ता । जैसे पाखण्ड की बातों से सद्ग्रन्थ छिप जाते हैं ॥ १४ ॥ चौ-दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई। बेद पढ़हिँ जनु बटु समुदाई । नव पल्लव भये बिटप अनेका । साधक मन जस मिले बिबेका १॥ चारों दिशाओं में मेढकों का शब्द ऐसा सुहावना लग रहा है, माने ब्रह्मचारियों के समुदाय वेद पढ़ते है।। नाना प्रकार के वृक्ष नवीन पत्तों से कैसे जान पड़ते हैं, जैसे साधना करनेवाले का मन शान प्राप्त होने से (परिपूर्ण) होता है ॥१॥ कविजी उत्प्रेक्षा करते हैं कि दादुरों की बोल समझ में नहीं पाती वैसे ही वेदपाठ सर्व- साधारण की समझ में नहीं आता उक्तविषया 'वस्तूत्प्रेक्षा' है। अर्क जवास पात बिनु भयऊ । जस सुराज खल उद्यम गयऊ । खोजत कतहु मिलइ नहिं धूरी । करइ क्रोध जिमि धर्महिंदूरी ॥२॥ मदार और जवासे के वृक्ष विना पत्ता के हो गये, जैसे अच्छे राज्य में दुष्टों का उद्योग (रहने नहीं पाता) चला जाता है। खोजने से भी कही धूल नहीं मिलती है, जैसे काध धर्म को दूर भगा देता है ॥२॥