पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१४

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७५१ चतुर्थ सोपाल, किष्किन्धाकाण्ड । दो०-तब हनुमन्त उभय दिसि,-की सब कथा सुनाइ । पावक साखी देइ करि, जोरी प्रीति दृढाइ ॥४॥ तब हनुमानजी ने दोनों ओर की सब कथा कह सुनाई और अग्नि को साक्षी देकर दृढ़तापूर्वक प्रीति जोड़ी ॥३॥ सीताजी के अपहरण का समाचार सुग्रीव से और सुग्रीव के दुःख का हाल रामचन्द्र- जी से कह कर परस्पर सहायता के लिए हनूमानजी ने निवेदन किया। अग्निदेव को साक्षी देने का कारण यह है कि उनमें वाहक शक्ति है और सब के उदर में वे निवास करते हैं। मित्रता के अनन्तर जिसके मन में विकार होगा उसे अग्निदेव जला देंगे। श्रथवा रामचरित- मानस में सर्वत्र अग्नि ही की प्रधानता है इललिए उन्हीं को साक्षी बना कर मित्रता भी हुई है। चौ०-कोन्हि प्रीति कछु बीच न राखा । लछिमन राम चरित सश भाखा कह सुग्रीव नयन मरि बारी । मिलिहि नाथ मिथलेस-कुमारी ॥१। प्रीति कर के कुछ अन्तर नहीं रखा, लक्ष्मणजी ने रामचन्द्रजी का सब चरित्र कह दिया। नेत्रों में जल भर कर सुग्रीव ने कहा, हे नाथ जनकनन्दिनी मिलेगी ॥४॥ मन्त्रिन्ह सहित इहाँ एक बारा । बैठ रहे। मैं करत बिचारा । गगन-पन्थ देखी मैं जाता। परबस परी बहुत बिलपाता ॥२॥ एक बार मैं मन्त्रियों के सहित बैठा हुश्रा यहाँ विचार कर रहा था। मैं ने उन्हें आकाश- मार्ग में पराधीनता में पड़ी बहुत विलपती हुई जाते देखा ॥२॥ राम राम हा राम पुकारी । हमाहिं देखि दीन्हे पट डारी॥ माँगा राम तुरत तेहि दीन्हा । पट उर लाइ सोच्य अति कीन्हा ॥३॥ वे राम राम ! हा राम ! पुकारती थी, हमलोगों को देख कर वस्त्र गिरा दिया । राम- चन्द्रजी ने उसे माँगा; सुग्रीव ने तुरन्त ला कर दिया, उस वस्त्र को हृदय से लगा कर बड़ा सोच किया।३॥ उस चीर को देख कर प्रिय संयोगजात पूर्वानुमुक वस्तु का ज्ञान होना विप्रलम्म रान्तर्गत 'स्मरण दशा है। कह सुग्रीव सुनहु रघुधीरा । तजहु सोच मन आनहु धीरा ॥ सब प्रकार करिहउँ सेवकाई । जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई॥४॥ सुग्रीव ने कहा-हे रघुवीर ! सुनिए, लौच छोड़ कर मन में धीरज लाइये । जिस तरह जानकीजी आ कर मिलेगी, मैं सब प्रकार की सेवकाई करूंगा॥४॥ दो-सखा बचन सुनि हरणे, कृपासिन्धु बल-सीब । कारन कवन बसहु बन, माहि कहहु सुग्रीव ॥३॥ छपासागर घल के सीव रामचन्द्रजी मित्र की बात सुन कर प्रसन्न हुए और वोशे-हे सुग्रीव ! श्राप वन में किस कारण निवासकरते हैं ? मुझ से कहिए ॥५॥