पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८१

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रामचरित मानस । ३० पाठ है। ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि पार्वतीजी प्रतिदिन विष्णुसहस्रनाम का पाठ कर के भोजन करती थीं । एक बार शिवजी हरिपूजन से निवृत्त हो भोजन करने बैठे और पार्वतीजी को बुलाया कि प्रिये ! आओ, तुम भी भोजन करो। इस पर पार्वतीजी ने प्रार्थना की, स्वामिन् ! अभी मैंने विष्णुसहस्रनाम का पाठ नहीं किया। आप भोजन करें, मैं पीछे प्रसाद पा लूँगी। यह सुन कर शिवजी हसे और कहा-हे वरोनने ! तुम 'राम' नाम एक बार उच्चारण कर हमारे साथ भोजन करो, तुमको सहस्रनाम के वरावर फल हो जायगा । शिवजी के वचन का विश्वास मान कर पार्वतीजी ने वैसा ही किया। इसी कथा का सङ्केत ऊपर की चौपाई में किया गया है। हरणे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को । नाम प्रभाव जान सिव नीको । कालकूट फल दीन्ह अमी को ॥४॥ पार्वतीजी के हृदय की ( राम नाम में ) प्रीति देख कर शिवजी प्रसन्न हुए और स्त्री के भूषण प्राप, सो स्त्री ही को भूपण (अर्धाङ्ग निवासिनी ) बनाया, अथवा भूपण रूपी स्त्रियों का उन्हें भूषण बनाया। नाम के प्रभाव को शिवजी अच्छी तरह जानते हैं, नाम ही की प्रभुता से विष ने उन्हें अमृत का फल दिया ॥ ४॥ दो-बरषा रितु रघुपति भगति, तुलसी सालि सुदास । राम नाम बर बरन जुग, सावन भादवें मास ॥१६॥ तुलसीदासजी कहते हैं कि रधुनाथजी की भक्ति वर्षा ऋतु है और सुन्दर भवजन धान के विरवा है । रोमन्नाम के दोनों श्रेष्ठ अक्षर श्रावण और भादों के महीने हैं ॥१॥ चौ-आखर मधुर मनोहर दोऊ । घरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥ सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू । लोक-लाहु परलोक-निबाहू ॥१॥ दोनों अक्षर मधुर मनोहर हैं और जो वर्ण भक्तजनों के हृदय के नेत्र हैं। वे स्मरण करने में सरल और सब को सुख देनेवाले हैं, जिनसे लोक में लाम तथा परलोक में निर्वाह (मोक्ष की प्राप्ति होती ) है ॥१॥ 'वरन विलोचन जन जिय जोड' का भावार्थ 40 रामबकस पाण्डेय ने लिखा है कि- सो सम्पूर्ण अक्षरों के नाँखी हैं और सब जनों के जीव हैं । सभा की प्रति के टीकाकार कहते हैं-ये सब अक्षरों के तथा मनुष्यों के हृदय के भी नेत्र है अर्थात् ये सब अक्षरों के सिर पर विराजते हैं और जिनके हृदय में ये अक्षर रूपी नेत्र नहीं वे अन्धे हैं। कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके । राम-लखन-सम प्रिय तुलसी के ॥ बरनत बर न प्रीति बिलगाती। ब्रह्म-जीव-इव सहज-संघाती ॥२॥ (दोनों अक्षर ) कहने सुनने और स्मरण करने में बहुत ही सुहावने हैं और तुलसीदास को रामचन्द्र और लक्ष्मणजी के समान प्यारे हैं। वर्णन करने में श्रेष्ठ हैं, इनकी प्रीति (पर- मुपर की मैत्री) अलगाती नहीं, ब्रह्म और जीव के समान (युगल वर्ण) स्वाभाविक सायी हैं ॥२॥