पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०७

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रामचरित-मानस। हैं । हे मुनि ! सुनिये, साधुओं के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी कह कर इति नहीं लगा सकते ॥४॥ हरिगीतिका-छन्द । कहि सकन सारद सेष नारद, सुनत. पद-पङ्कज गहे अस दीनबन्धु कृपाल अपने, भगत गुन निज-मुख कहे। सिर नाइ खारहि बार चरनन्हि, ब्रह्मपुर नारद गये। ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रये ॥१४॥ सरस्वती और शेष भी नहीं कह सकते, यह सुन. कर नारदजी ने चरण कमलों को पकड़ लिया। कृपालु दीनबन्धु ने अपने भक्तों के गुण को ऐसा (अनन्त महत्वशाली.) अपने : मुख से कहा है ! बारम्बार चरणों में सिर नवा कर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गये। तुलसी. दास जी कहते हैं कि वे मनुष्य धन्य हैं जो संसार की समी प्राशाओं को त्याग कर भगवान के रक्ष में रंगे हुए हैं ॥१४॥ दोष-रावनारि-जस पावन, गावहिं सुनहि जे लोग। रामभगति दृढ़ पावहिँ, बिनु बिराग जप जोग । रावण के शत्रु श्रीरामचन्द्रजी का यश जो लोग गामे और सुनेगे वे विना वैराग्य, जप और योग के द रामभक्ति पावेंगे। 'रावणारि' नाम रामचन्द्रजी का क्रियावाचक है। बिना वैराग्य, जप, योग के किये केवल रामचरित गान करने से दुर्लम रामभक्ति का मिलना अर्थात् थोड़े ही श्रारम्भ से अल. भ्य लाभ होना"द्वितीय विशेष अलंकार है। यह दोहा आशीर्वादात्मक है। दीप-लिखा. सम जुबति तन, मन जनि होति पतङ्ग अजहि राम तजि काम मद, करहि सदा सतसङ्ग ॥१६॥ स्त्री का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन ! तू उसका पाँखी मत हो । काम और मद का त्याग कर के रामचन्द्रजी का भजन, और सदा सत्सङ्ग कर ॥ ४६॥ इति श्रीरामचरितमानसे सकल कलि कलुष विध्वंसने विमल वैराग्य सम्पादनों नाम तृतीयः सोपानः समाप्तः । इस प्रकार कलियुग के सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला श्रीरामचरितमानस में विमल वैराग्य सम्पादन नामवाला यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ। (शुभमस्तु-मङ्गलमस्तु)