पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८०२

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तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसर आई ॥ यह बिचारि नारद कर बीना । गये जहाँ प्रनु सुख आसीना ॥४॥ ऐसे स्वामी को चल कर देखें, फिर ऐसा संभय श्रा कर न जुटेगा। यह विचार कर नारदजी हाथ में वीणा लिए हुए जहाँ प्रभु रामचन्द्रजी सुख से बैठे हैं, वहाँ गये nan फिर ऐसा मौका हाथ न आवेगा इस वाक्य में अगूढ़ व्यङ्ग है कि जब मैं स्त्री-वियोग से विफल हुशा था, तब उन्हाने मुझे बहुत ज्ञानोपदेश दिया था। अब वही आपदा उनके सिर पर पड़ी है, इस समय के क्लेश की दशा पूछनी चाहिये । गोसाँईजी ने बालकाण्ड में शिवजी के द्वारा कहलाया है-"अपर हेतु सुन बैल कुमारी। कहउँ विचित्र कथा विस्तारी॥ नेहि कारन अज अगुन अरूपा । ब्रह्म भयउ काशजार भूग।" इस ले राष्ट है कि नारदजी ने शाप दिय था, उस अवतार की कथा यह नहीं है । फिर यहाँ नारदजी के मुख से ऐसा क्यों कहलाया ? उत्तर-एक अवतार की प्रधान रूप से और अन्य तीनों अवतारों की कथा गौण रूप से मिला कर रामचरितमानस का वर्णन हुआ है। इसके बहुत प्रमाण मिलेंगे, यह कल्पभेद है। गावत्त रामचरित मृदु बानी । प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥ करत दंडवत लिये उठाई। राखे बहुत बार उर लाई ॥५॥ प्रेम सहित बहुत तरह कोमल वाणी से बखान कर रामचन्द्रजी का यश गाते हुए पहुंचे । दण्डवत करते देख कर उन्हें रामचन्द्रजी ने उठा लिया और बहुत देर तक हदय में लगा रक्खा ॥५॥ स्वागत पूछि निकट बैठारे । लछिमन सादर चरन पखारे ॥६॥ कुशल समाचार पूछ कर पास में बैठाया और लक्ष्मणजी ने सादर के साथ उनके पाँव धोये ॥६॥ दो-नाना बिधि बिनती करि, प्रभुप्रसन्न जिय जानि । नारद बोले बचन तब, जारि सरोरुह-पानि ॥४१॥ नाना प्रकार से पिनती कर के प्रभु रामचन्द्रजी को जी में प्रसन्न जानकर, तब नारदजी अपने कर-कमलों को जोड़ कर वचन बोले ॥४॥ चौ०-सुनहु उदार परम रघुनायक । सुन्दर अगल सुगम बर-दायक ॥ देहु एक बर माँगउँ स्वामी। जद्यपि जानत अन्तरजामी ॥१॥ हे परम उदार रघुनायक सुनिये, श्राप दुर्लम वर देने में सुन्दर सहज दामी हैं। है स्वामिन् । यद्यपि श्राप मेरे मन की बात जानते हैं तो भी एक वर माँगता हूँ. दोजिये ॥१॥ जानहु मुनि तुम्ह मार सुभाऊ । जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ । कवनबस्तुअसिप्रियमाहि लागी। जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मांगी ॥२॥ रामजन्द्रजी ने कहा-हे मुनि ! भोप मेरे. स्वभाव को जानते हैं, क्या कमो मैं भलों से