पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८००

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७३७ उमा कहउँ मैं अनुभव अपना । सत हरिभजन जगत सय सपना । पुनि प्रअ गये सरोबर तीरा । पम्पा नाम सुभग गम्भीरा ॥३॥ हे पार्वती ! मैं अपना अनुभव (परीक्षा द्वारा प्राप्त शान) कहता हूँ कि हरिभजन सच्चा और सर जगत सपना (झूठा) है। फिर प्रभु रामचन्द्रजी पम्पा नामक सुन्दर गहरे वालाब के किनारे गये ॥३॥ शिवजी को अपने अनुभव से पार्वतीजी को धान सिमाना 'चतुर्थ निदर्शना अलंकार है। सन्त हृदय जल निर्मल बारी । बाँधे घाट मनोहर चारी ॥ जह तह पियहि विविध मृग नीरा । जनु उदार-गृह जाचक भीरा ॥४॥ उसमें ऐसा निर्मल जल है जैसे सन्तों का हृदय स्वच्छ होता है, चारों घाट सुन्दर पक्के पँधे हुए हैं । जहाँ तहाँ भनेक प्रकारके मृग (पशु) पानी पीते हैं, वह ऐसा मालूम होता है मानों दाता के घर याचकों की भीड़ हो nen दाता के द्वार पर महनों की भीड़ होती ही है । यह 'उक्तविषया वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार' है। दो०-पुरइन सघन ओट जल, बेगि न पाइय मम । मायाछन न देखिये, जैसे निर्गन ब्रह्म ॥ धनी पुरइन (कमल पत्र) की आड़ में शीघ्र जल का पता नहीं मिलता, जैसे माया से के हुए प्राणी निगुनि ब्रह्म को नहीं देख सकते। सुखी मीन सब एकरस, अति अगाध जल माहि। जथा धर्म-सीलन्ह के दिन सुख-सज्जुत जाहिँ ॥३६॥ अत्यन्त गहरे जल में सब मछलियाँ एक समान इस प्रकार सुखी हैं. जैसे धर्मात्मा प्राणियों के दिन सुख-पूर्वक जाते हैं |asn चौ०-भिकसे सरसिज नाना रङ्गा । मधुर भुखर . गुज्जत बहु जा ॥ बोलत्त जलकुक्कुट कलहंसा । प्रभुबिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥१॥ राज के सामल खिले हुए हैं, बहुत से भ्रमर मोठी, आवाज़ से गुजारते हैं । जलमुर्गे और राजहंस बोलते हैं. ऐसा मालुम होता है मानों प्रभु रामचन्द्रजी को देख कर उनकी प्रशंसा करते हैं ॥१॥ पती अपनी साधारण वोली बोल रहे हैं न कि प्रशंसा करते हैं । इस हेतु को हेतु ठहराना 'प्रसिद्धविषया हेतत्प्रेक्षा अलंकार' है। चक्रवाक बक खग समुदाई । देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥ सुन्दर खग-गल गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥२॥ चकवा और वकुले आदि पक्षियों का समुदाय देखतेही बनता है, वर्णन नहीं किया जा सकता । सुन्दर पक्षी गणों की सुहावनो बोलो ऐसी मालूम हेरती है मानों वे राह चलते हुए बटाहो को बुला लेते हो ॥२॥