पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९७

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७३४ रामचरित मानस । लछिमन देखु विपिन कै सोमा। देखत केहि कर मन नहिं छोमा । नारि सहित सब खम-मृग-वृन्दा । मानहुँ मारि करत हहिँ निन्दा ॥२॥ हे लक्ष्मण वन की शोभा देखो, इसको देख कर किस (विरही ) का मन विचलित न होगा ? पक्षी और मृगों का झुण्ड सय स्त्री समेत रह कर ऐसे मालूम होते हैं मानों वे मेरी निन्दा करते हो ॥२॥ हमाहि देखि मृग-निकर पराही । सुगी. कहहिँ तुम्ह कह भय नाहीं ॥ तुम्ह आनन्द करहु मुंग-जाये। कञ्चन मृग खोजन ये आये ॥३॥ हम को देख कर मृगों के झुण्ड भागते हैं, हरिणियाँ कहती हैं तुम को डर नहीं है। हे मृग पुत्र ! तुम आनन्द करो, ये सोने का मृग ढूँढ़ने आये हैं ॥३॥ 'मृगजाये' शब्द में लक्षणामूलक अगूढ़ व्या है कि तुम मृग के जाये सच्चे मृग हो, इससे तुम्हें न मारेंगे। ये माया-मृग के मारनेवाले हैं । यहाँ रामचन्द्र जी मृगियों के ताने की बात कह कर अपनी अल्पज्ञता सूचित करते हैं । यह 'अस्फुट गुणीभूत व्यक्त है। सङ्ग लाइ करिनी कर लेहीं। मानहुँ माहि सिखावन देहीं। साख सुचिन्तित पुनि पुनि देखिय । भूप सुसेबित बस नहिँ लेखिय ॥४॥ हाथी हथिनियों को साथ में लगा लेते हैं, ऐसा मालूम होता मानों वे मुझे सिखांवन देते हैं कि अच्छी तरह स्मरण किये हुए शास्त्र को बार बार देखना चाहिये और राजा की : सुन्दर सेवा करने पर भी उसको अपने वश में न समझना चाहिये || राखिय नारि जदपि उर माही । जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥ देखहु तीत बसन्त सुहावा । प्रिया-हीन मोहि भय उपजावा ॥५॥ यद्यपि स्त्री को हदय में रखिये तो भी स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते। हे भाई ! देखो; वसन्ते कैसा सुहावना लगता है, परन्तु प्यारी (सीता) के बिना मुझेर उत्पन्न करता है ॥n पहले तीन वस्तुओं का नाम लिया-शान, राजा और स्त्री । मीचे भी उसी क्रम से कहना चाहता था, पर वैसा न कह कर स्त्री, शास्त्र और राजा का नाम लेना महकम 'यथासंख्य अलंकार' है । युवती, शास्त्र और नृपति तीने उपमेयों को 'धर्म' वश में नहीं होते कथन करना 'प्रथम तुल्ययोगिता अलंकार' है। सुहावने वसन्त को भय उपजानेवाला कहना 'प्रथम व्याघात अलंकार' है। प्यारी के बिना सुहावना वसन्त भयंकर हुमा 'प्रथम विनोक्ति अलंकार' है। यहाँ अलंकारों का सन्देहसकर है। दोष-बिरह-बिकल बल-हीन माहि, जानेसि निपद अकेल । सहित बिपिन मधुकर खग, मदन कीन्हि बगमेल ॥ मुझको विरह से व्याकुल, वल-हीन और सब प्रकार से अकेला जाम कर कामदेव समर तथा पक्षियों के सहित वन में (मुझे जीतने की इच्छा से) मेरे अत्यन्त समीप पाँची! 6 .