पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७९०

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७२९ तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । दो०-अबिरल भगति माँगि बर, गीध गयउ हरि धाम । तेहि की क्रिया जयोचित, निज कर कीन्ही राम ॥३२॥ सदा एक समान रहनेवाली भक्ति का वर माँग कर गीध बैकुण्ठ को चला गया । उसकी क्रिया (दशगात्र विधान) यथायोग्य रामचन्द्रजी ने अपने हाथों से की ॥३२॥ चौ०-कोमल चित अति दीनदयाला । कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥ गीध अधम खग आमिषागी। गति दीन्ही जो जाँचत्त जोगी॥१॥ कृपालु रघुनाथजी अत्यन्त कोमल हृदय और बिना कारण ही वीनों पर दया करनेवाले हैं। प्रधम पक्षी गिड, मांस का खानेवाला, उसको वह गति दी जिसे योगीजन चाहते सुनहु उमा ते लोग अमागी। हरि तजि होहि बिषय अनुरागी। पुनि सीतहि खोजत दोउ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई ॥२॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! सुनो, वे लोग भाग्यहीन हैं जो भगवान रामचन्द्रजी को छोड़ कर विषयों के प्रेमी होते हैं । फिर दोनों भाई सीताजी को ढूँढते और बन को अधिकता को देखते हुए चले ॥२॥ सङ्कुल लता बिटप धन कानन । बहु खग सुग तहँ गज पज्ञानन ॥ आवत पन्थ कमन्ध निपाता । तेहि सब कही साप के बाता ॥३॥ लता और वृक्षों से भरपूर घना जङ्गल जिसमें बहुत से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह बिहार करते हैं। रास्ते में श्राते हुए कबन्ध राक्षस का नाश किया, उसने अपने शाप की सब बात कही ॥३॥ दुर्वासा मोहि दोन्ही सापा । प्रमु-पद-पेखि लिटा से पापा । सुनु गन्धर्व कहउँ मैं तोही। मोहि न सुहाइ ब्रह्म-कुल-द्रोही ॥४॥ मुझे दुर्वासा ने शाप दिया था, हे प्रभो! वह पाप आप के चरणों के दर्शन से मिट गया। रामचन्द्रजी ने कहा-हे गन्धर्ष ! जो मैं तुझ ले कहता हूँ वह सुभ, मुझे ब्राह्मण कुल का द्रोही नहीं सुहाता ॥ गन्धर्व ने अपने शाप की बात रामचन्द्रजी से इस प्रकार वर्णन की । स्वामिन् ! एक बार मैं ने इन्द्र की सभा में मनोहर गान किया, सारी सभा प्रसन्न होकर वाह वाह करने लगी। दुर्वासा ऋषि भी वहाँ बैठे थे, उन्हों ने कुछ भी प्रसन्नता नहीं प्रकट की। उनके इस रूखेपन पर तिरस्कार सूचक भाव से मैं हँस पड़ा। मुनि ने कुपित होकर शाप दिया कि राक्षस होगा। जब मैंने राक्षस होकर बड़ा उपद्रव मंचाया, तब इन्द्र ने मुझ पर वज़ मारा, जिससे मेरा मस्तक पेट में धंस गया; किन्तु मरा नहीं । जब भोजन बिना मरने लगा, तब इन्द्र ने दया कर के मेरी भुजायें योजन भर की लम्बी कर दी। उसी से जीवों को पकड़ कर खाता था।