पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६२

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1 तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ७१ उसको परम वैरोग्यवान कहना चाहिये जो लिधियों और तानों गुणों को तिनके के समान त्याग दिये ॥४॥ दो०-माया ईस न आप कह, जान कहिय खो जीव । बन्ध माच्छ-प्रद सर्ब पर, माया-प्रेरक लीव ॥१५॥ माया, ईश्वर को न जान कर जो (ममत्व में पड़ा मा) अपने ही को जानता है। उसे जीव काहना चाहिये । बाँधनेवाला, मोक्षदेनेवाला, सब से परे और माया को माज्ञा देनेवाला ईश्वर है । ॥१५॥ जीव परतन्त्र मायाधीन है और ईश्वर स्वतन्त्र माया-प्रेरक है, जीव तथा ईश्वर में यही अन्तर है। इस दोहे का रामायणी लोग पड़ा लम्बा चौड़ा अर्थ करते हैं, परन्तु उनका विस्तार हम कुछ भी करना नहीं चाहते । यहाँ मतान्तरों के झगड़े से कोई प्रयोजन नहीं है। ची-धर्म त बिरति जोग ते ज्ञाना । ज्ञान माच्छ-प्रद बेद बखाना । जा ते बेगि द्रवउँ मैं भाई । सो मम मगति भगत-सुखदाई॥१॥ धर्म से वैराग्य, वैराग्य से योग और योग से ज्ञान होता है, वेद खानते हैं कि ज्ञान मोक्ष का देनेवाला है। हे भाई ! जिससे मैं जल्दी दया करता हूँ वह हमारी भक्ति भक्तों को सुख देनेवाली है ॥ १॥ धर्म कारण, वैराग्य कार्य , फिर वैराग्य कारण, योग कार्य पुनः योग कारण और शोन कार्य हुआ है। इस प्रकार कारण से उत्पन्न कार्य का बार बार कारण होना कारण- माला अलंकार है। सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ज्ञान विज्ञाना । भगति तात अनुपम सुखमूला । मिलइ जो सन्त होहि अनुकूला ॥२॥ वह (भक्ति) स्वाधीन है। उसको दूसरे का सहारा नहीं है, ज्ञान और विज्ञान उसके अधीन हैं। हे तात ! भक्ति सुख फी जड़ अनुपमेय है, जो सन्त दया करें तब वह मिलती है ॥२॥ भगति क साधन कहउँ बखानी । सुगम-पन्थ मोहि पावहिँ प्रानी ॥ प्रथमहिं बिन चरन अति प्रीती । निज निज धरम निरत खुति रीती॥३॥ भक्ति का साधन बखान कर कहता हूँ, इस सुगम मार्ग से प्राणी मुझे पाते हैं। पहले ब्राह्मण के चरण में अत्यन्त प्रेम हो और वेद की रीति ले अपने अपने धर्म में तत्परता हो ॥३॥ एहि कर फल मन बिषय बिरागा । तच्छ मम धरम उपज अनुरागा। सक्नादिक नव भगति ढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं nen इसका फल यह है कि विषयों से मन विरक्त हो जायगा, तब मेरे धर्म में प्रेम उत्पन्न होगा । श्रवणादिक नव प्रकार की भक्ति एढ़ होगी, मेरी लीलाओं पर मन में अत्यन्त प्रीति होगी ॥४॥