पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७६

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भ्रथम सोपान, बालकाण्ड । ३५ सेवक-स्वामी श्रादि होने का विशेष रूप से स्पष्टीकरण लङ्काकार ड में दूसरे दोहे के बाद प्रथम चौपाई के नीचे देखो। कलि बिलोकि जग-हित हर-गिरजा । साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरजा । अनमिल आखर अरथ न जापू । प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू ॥३॥ जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देख कर संसार की भलाई के लिए साबरमन्त्र- समूह निर्माण किया। जिनके अक्षर अनमेल और न उनमें कोई अर्थ है न जाप, पर शिवजी के प्रताप से उनका प्रभाव प्रत्यक्ष (तुरन्त फलदायक ) है। सेो महेस माहि पर अनुकूला । करउँ कथा मुद-मङ्गल-मूला ॥ सुमिरि सिवा-सिव पाइ पसाऊ । बरनउँ रामचरित चित-चाऊ ॥४॥ वे शिवजी मुझ पर प्रसन्न हैं, इससे मैं श्रानन्द-मंगल की कथा का निर्माण करता हूँ। शिव-पार्वती का स्मरण कर और उनकी प्रसन्नता पा कर मन में उत्साहित हो रामचन्द्र जो का चरित्र वर्णन करता हूँ ॥४॥ भनिति मारि सिव कृपा बिभाती। ससि-समाज मिलि मनहुँ सुराती । जे एहि कथहि सनेह-समेता । कहिहाहँ सुनिहहिँ समुझि सचेता ॥५॥ मेरी कविता शिवजी की कृपा से ऐसी अधिक सुहावनी मालूम होती है, जैसी सम- रडलीक ( तारागणों के सहित ) चन्द्रमा के मिलने से रात्रि अच्छी लगती हो । जो इस कथा को स्नेह के साथ कहेंगे, सुनेगे और सावधान होकर समझेगे ॥ ५ ॥ शिव-छपा से कविता ऐसी शोभनीय है, जैसी ससि समाज से मिलकर रानि सुहावनी है। 'उक्त विषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। होइहहिँ राम-चरन-अनुरागी । कलिमल-रहित सुमङ्गल-भागी ॥६॥ वे रामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी होंगे और कलि के पापों से मुक्त होकर सुन्दर मङ्गल के भागी बनेंगे ॥६॥ दो०--सपनेहुँ साँचेहु मोहि पर, जौँ हर-गौरि-पसाउ । तौ फुर होउ जो कहउँ सब, भाषा-भनिति- -प्रभाउ ॥१५॥ यदि शिव-पार्वती की प्रसन्नता मुझ पर सचमुच सपने में भी हुई हो, तो भाषा काव्य का प्रभाव जो मैंने कहा है, वह सब सच होगा ॥ १५॥ चौ०-बन्दउँ अवधपुरी अतिपावनि ।सरजू-सरि कलि-कलुष-नसावनि॥ प्रनवउँ पुर-नर-नारि बहोरी । ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी ॥१ • अत्यन्त पवित्र अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों को नष्ट करनेवाली सरयू नदी को मैं प्रणाम करता हूँ। फिर उस नगरी के स्त्री-पुरुषों की वन्दना करता हूँ, जिन पर प्रभु राम- चन्द्रजी का बहुत बड़ा स्नेह है ॥ १॥