पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७४४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तृतीय सोपान, अरण्यकाण्ड । ६२३ दिनेश-वंश-मण्डन । महेश-चाप-खण्डनं ॥ मुनीन्द्र-सन्त-रज्जनं । सुरारि-वृन्द-भजनं ॥४॥ आप सूर्य वंश के आभूषण और शिवजी के धनुष को तोड़नेवाले हैं। मुनिराज और सन्तजनों को आनन्दित करनेवाले तथा दैत्य-समूह के नाशक हैं ॥४॥ मनोजवैरि-वन्दितं । अजादि-देव-सेवितं । विशुद्धबोध-विग्रहं । समस्त-दूषणापहं ॥५॥ कामदेव के वैरी (शिवजी) से वन्दनीय और ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवा किये गये आप विशुख शान के स्वरूप हैं तथा सम्पूर्ण दोषों के हरनेवाले हैं। ५॥ नमामि इन्दिरापतिं । सुखाकर सतां गतिं ॥ भजे सशक्ति सानुजं । शची-पति-प्रियानुजं ॥६॥ हे लक्ष्मीकान्त, सुख की खान, सज्जनों के गति रूप ! मैं आप को नमस्कार करता हूँ। शक्ति (सीताजी) के सहित और छोटे भाई (लक्ष्मण) के समेत मैं आप को भजता हूँ, आप शचीपति (इन्द्र ) के छोटे प्रिय-बन्धु हैं ॥ ६ ॥ इन्द्र अदिति के पुत्र हैं। राजा बलि के यश करते समय उनसे पृथ्नो ले कर इन्द्र को देने के लिए अदिति के व्रत से सन्तुष्ट हो भगवान ने उसकी कोख ले वामन अवतार लिया था। इसी से इन्द्र के अनुज 'उपेन्द्र' कहलाते हैं । त्वदध्रि मूल ये नरा । भजन्ति हीन-मत्सराः ॥ पतन्ति नो भवार्णवे । वितर्क-वीचि सङ्कले ॥ जो मनुष्य डाह रहित हो कर आप के चरण-चिह्नों को भजते हैं। वे कुतर्क रूपी तरको से खूब भरे हुए संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते ॥ ७॥ विविक्तवासिनस्सदा । अजन्ति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इन्द्रियादिकं । प्रयान्ति ते गवि-स्वकं ॥ एकान्तबाली महात्मा मुक्ति के लिए सदा आनन्द से श्राप को भजते हैं। वे इन्द्रियादि सुखों से उदासीन हो कर अपनी गति (ब्रह्मानन्द ) को प्राप्त होते हैं। त्वमेकमद्भुतं प्रभुं । निरीहमीश्वर विभु। जगद्गुरुंच शाश्वतं । तुरीयमेव केवल माप अद्वितीय, विलक्षण खामी, चेष्टारहित, ईश्वर और समर्थ हैं। जगत गुरु, नित्य, तुरीयावस्था ( मोक्ष स्वरूप ) ही और शुद्ध हैं ॥8॥ एक रामचन्द्रजी का बहुत तरह से वर्णन करना 'द्वितीय उल्लेख अलंकार' है।