पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७२१

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दो०-लेनक ६६० रामचरित मानस । जानि तुम्हहिं मृदु कहउँ कठोरा । कुसमय तात न अनुचित मारा । होहिं कुठाँय सुबन्धु सहाये । ओड़ियहि हाथ असनि के घाये ॥४॥ श्राप को कोमल जान कर मैं कठोर वचन कहता हूँ, हे तात ! कुलमय कहलाता है इसमें मेरा दोष नहीं है। अच्छे भाई कुजगह में सहाय होते हैं, ( जैसे ) वन की चोट से शरीर को बचाने के लिये हाथ उसको अपने ऊपर ओजता है कुजगह में सुन्दर वन्धु सहायक होते हैं, यह उपमेय वाक्य है । वन की चोट को हाथ अपने ऊपर रोज लेता है , यह उपमान वाश्य है । दोनों वाक्यों में बिना वाचक पद के लिम्ब प्रतिबिम्ब भाव झलकना 'दृष्टान्त अलंकार' है। लारांश यह कि सुबन्धु गाढ़े दिन में इस तरह सहायक होते हैं, जैसे शरीर पर वन का धार होते देख यह जानते हुए कि मैं नष्ट हो 'जाऊँगा फिर सी हाथ उसे अपने ऊपर भोज लेता है। कर-पद-नयन से, मुख खो साहिब होइ। तुलसी प्रीति कि रीति सुनि, सुकबि सराहहिं सोइ ॥३०६॥ सेवक हाथ, पाँच और नेत्र के समान हो, स्वामी मुख के समान होना चाहिये । तुल- सीदासजी कहते हैं कि इनकी प्रीति की रीति को सुन कर अच्छे कवि उसकी बड़ाई करते हैं ॥३०॥ व्यज्ञार्थ द्वारा हटान्त का भाव है जैसे आँखों ने कोई फल देखा, पाव चल कर उसके समीप गये, हाथ ने उठा कर मुख रूपी मालिक को दे दिया और उसने अकेले उसे खा लिया । परन्तु उसले उसने हाथ, पाँव, नेत्रादि रूपी सेवकों को शक्ति संचार समान रूप से करके वितरण कर दिया। चौ०-सभा सकल सुनि रघुबर बानी । प्रेम-पयोधि अमिय जनु सानी ॥ सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी॥१॥ रघुनाथजी की वाणी सुन कर सोरी सभा प्रेम के समुद्र में मन्न हो गई, ऐसा मालूम होता है मानों वह अमृत-रस से मिली हो । स्नेह की समाधि से समाज शिथिल हो गया, यह दशा देख कर सरस्वती ने मौन साधन कर लिया (सनाटा छा) गया॥१॥ वाणी ऐसी वस्तु नहीं जो अमृत में लानी जा सके, यह केवल कवि की कल्पनामात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। भरतहि भयउ परम सन्तोषू । सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू ॥ मुख प्रसन्न मन मिटा विषादू । मा जनु गू गेहि गिरा प्रसादू ॥२॥ भरतजी को परम सन्तोष दुश्रा, स्वामी की अनुकूलता से दुःख दोष पीछे पड़ गये। मुख प्रसन्न है और मन का विषाद.मिट गया, ऐसे खुश मालूम होते हैं मानों गंगे को सरस्वती का प्रसाद हुमा हो अर्थात् बोलने की शक्ति आ गई हो ॥२॥ .