पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७१३

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रामचरित मानस । उदार गुणवाले स्वामी श्राप श्राप के समान आपही हैं और स्थामिद्रोहियों में मेरे समान मैं ही हूँ । उपमेय ही को उपमान घमाना 'अनन्वय नाकार' है। कुछ टीकाकारों ने 'साँह दोहाई शब्द का अर्थ- मैं स्वामी की सौगन्ध खाकर कहता है" किया है। परन्तु यहाँ सौगन्द से प्रयोजन नहीं है, यह 'स्वामि द्रोहाई' का अपभ्रष्ट रूप है। प्रभु-पितु-बचन लोह अस पेली। आयेउँ इहाँ समाज, सकेली। जग मल पाच ऊँच अरु नीचू । अमिय अमर-पद माहुर मीचू ॥३॥ (इससे पढ़ कर स्वामि-द्रोहितो और यया हो सफती है कि) स्वामि और पिता की बात को सम्मान वश न मान कर उलटे समाज स्टोर कर यहाँ आया । संसार में भले, बुरे, ऊँच और नीच जिवने हैं अमृत को अमरत्व प्रदान करना तथा विप को मृत्यु कराना ( स्वामी की आशा जिसको जैसी है, वह उसी सीमा के भीतर आशानुसार कार्य करता है ॥३॥ अमिय को अमरपद और मार को मोधु, इसमें पद और अर्थ दोनों की प्रालि होने से पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार है। स्वामी की श्राशा सुमन्न के द्वारा मेरे लिये यह हुई थी कि-लहर देस भरत के श्राये। नीति न तजिय राज-पद पाये ॥" और पिताजी की प्राशा थी कि-"मुदिन सोधि सय साज सजाई । दे भरत कह राज बजाई।" मैं ने इन श्राक्षाओं के विपरीत कार्य किया। राम रजाइ बेट मन माहीं । देखा सुना कतहुँ कोउ नाहीं । सों मैं सब विधि कोन्हि ढिठाई । प्रभु मानी सनेह सेवकाई ॥४॥ रामचन्द्रजी की प्राक्षा को मन में मेटना पाही कोई देखा सुना नहीं जाता। वह करके मैं मे सब प्रकार की विठाई की अर्थात् रामाज्ञा को मिटा दिया, परन्तु आपने ( मेरे उस दुर्गुण को) स्नेह और सेवकाई मान ली ॥४॥ दो-कृपा भलाई आपनी, नाथ कीन्ह अल भार । दूधन से सूपन सरिस, सुजस चारु चहुँ ओर ॥२८॥ हे नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला किया। दोष आभूषण के समान सुप और चारों ओर सुन्दर यश फैल रहा स्वामी की कृपा से मेरे दोष भूषण रूप हो गये 'लेश अलंकार' है। चौधराउरि रीति सुबानि बड़ाई। जगत बिदित निगमागम गाई । कूर कुटिल खल कुमति कलङ्की । नीच निसील निरीस निसङ्की ॥१॥ आप की रीति, सुन्दर बानि और बड़ाई संसार में प्रसिद्ध है तथा वेद शासों ने गाई है । निर्दय, कुटिल, दुष्ट, बोटी बुद्धिवाले, कलङ्की, नीच, शील रहित, नास्तिक और बुरा कर्म करने में किली का डर मामाननेवाले ॥१॥ ॥२६॥