पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७११

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रामचरित-मानस । तात राम जस आयसु देहू । सो सव करइ मार मत एहू । सुनि रघुनाथ जोरि जुग पानी । बोले सत्य खरल मृदु बानी ॥३॥ हे प्रिय रामचन्द्र ! जैसी श्राशा देश्रो. वह संब करे, मेरी यही सम्मति है । सुन कर रधु. नाथजी दोनों हाथ जोड़ कर सभी सीधी और कोमल पाणी घोले ॥३॥ विद्यमान आपुन मिथिलेसू । मोर कहब सब भाँति भदेसू ॥ राउर राय रजायसु हाई । राउरि सपथ सही सिर सेाई ॥४॥ जहाँ श्राप और मिथिलेश्वर विराजमान (मौजूद) हैं, वहाँ मेरा फहनासब तरह से भड़ा है। आप की और राजा जनकजी जो नाशा हो, मैं आप की सौगन्द कर कहता हूँ मुझे ठीक वही शिरोधार्य होगी nan दो-राम सपथ सुनि सुनि जनक, सकुचे सभा समेत । सकल बिलोकत भरत मुख, बनइ न ऊतर देत ॥२६॥ रामचन्द्रजी को सपथ सुन कर पशिष्ठ मुनि, जनकजी सभा के सहित सकुचा गये। सब भरतजी का मुख देखने लगे, किसी से उत्तर देते नहीं बनता है ॥२६॥ चौध-सभा सकुच बस भरत निहारी । रामबन्धु धरि धीरज भारी ॥ . कुसमाउ देखि सनेह सँभारा । बढ़त बिन्धि जिमि घटज निवारा॥१॥ सभा सकुच वश भरतजी को देख रही है, अंथवा भरतजी सभा को सकुच वश निहार कर रामचन्द्रजी के भाई हैं, हृदय में भारी धीरज धारण किया। कुसमय देख कर स्नेह को सम्हाला, जैसे बढ़ते हुए विन्ध्याचल को अगस्त्य मुनि ने निवारण किया था ॥१॥ बढ़ते हुए प्रेम को भरतजी ने सम्हाला, इस सामान्य घात की समता विशेष से दिलाना कि जैसे विन्ध्याचल की बाढ़ को कुम्भन मुनि ने रोका था 'उदाहरण अलंकार' है। पौराणिक कथा है कि एक बार विन्ध्य पर्वत सूर्य का माग रोकने के लिये ऊपर उठा, देवताओं ने निरुपाय समझ कर अगस्त मुनि से प्रार्थना की। क्योंकि विन्ध्याचल उनका शिष्य है, तब मुनि पर्वत के सामने आये, उसने दण्डवत करते हुए पूछा मेरे लिये क्या श्राक्षा है ? अगस्तजी ने कहा कि जब तक मैं लौट कर न पाऊँ तब तक तुम इसी तरह पड़े रहो। ऐसा कह फर मुनि दक्षिण दिशा को गये और लौटे नहीं। सोक कनकलोचन मति छानी । हरी बिमल गुन-गन जगजानी। भरत-बिग्रेक बराह जिसाला । अनायास उधरो तेहि काला ॥२॥ शोक रूपी हिरण्याक्ष ने सभा की बुद्धि रूपिणी धरती को हर लिया, निर्मल गुण-गया रूपी ब्रह्मा से भरतजी के शान रूपी विशाल शूकर ने उस समय उत्पन्न होकर अनायास ही उद्धार किया ॥२॥ विष्णुपुराण और श्रीमद्भागवत में हिरण्याक्ष का इतिहास इस प्रकार वर्णन है कि वह '