पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०७

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६४६ शामचरित-मानस । चौ०-सुनि मुनि बचन जनक अनुशगे। लखि गति ज्ञान विराग बिरागे ॥ सिथिल सनेह गुनत मन माहीं। आये इहाँ कीन्ह अल नाहीं ॥१॥ मुनि के वचनों को सुन कर जनकजी प्रेमासक्त हो गये, उनकी दशा देख कर मान और वैराग्य को भी विराग हो गया। स्नेह से शिथिन हुए मन में विचारते हैं कि हम यहाँ भाये, यह अच्छा नहीं किया ॥१॥ शान वैराग्य को विरागी का कर, राजा के प्रेम वर्णन में प्रमात्युक्ति अलंकार' है। रामहि राय कहेउ चल जाना । कीन्ह आपु प्रिय प्रेम प्रवाना ॥ हम अब बन ते बनहिं पठाई । प्रमुदित फिरब बिबेक बढ़ाई ॥२॥ राजा दशरथ ने रामचन्द्र को वन जाने के लिये पाहा, अपने प्रिय प्रेम को सवा किया अर्थात् प्राण त्याग दिया । शव हम वन से भी वन को भेज कर बड़ी प्रसन्नता से ज्ञान बढ़ा कर लौटेंगे ॥२॥ तापस मुनि महिसुर सुनि देखी । भये प्रेम-बस विकल बिसेखो। सबउ समुझि धरि धोरज राजा । चले भरत पहिँ सहित समाजा ॥३॥ तपस्वी, मुनि और ब्राह्मण (राज का विषादी देस' सुन कर प्रेम के अधीन विशेष व्याकुल हो गये। अक्सर समझ राजा धीरज धर कर समाज के सहित भरतजी के पास चले ॥३॥ भरत आइ आगे भइ लोल्हे । अवसर सरिस सुआसन दीन्हे ॥ तात भरल कह तिरहुति-राऊ । तुम्हहि विदित रघुबीर सुभाऊ un भरतजी आगे से श्रा कर लिया गये और समयानुसार सुन्दर आसन दिये। तिरहुति राज ने कहा-हे तात भरत ! आप को रधुनाथजी का स्वभाव मालूम है ॥ ४ ॥ दो०-राम सत्यत्रत घरखरत, सब कर सील सनेहु । सङ्कट सहत सकाच बस, कहिय जो आयसु देहु ॥२२॥ रामचन्द्र सत्यव्रत और धर्म में तत्पर है, हम सब के शील-स्नेह के वश सकोच से सङ्कट सहते हैं, इसलिये जो श्राक्षा दीजिये वह मैं उनसे कहूँ ॥२६॥ चौ०-सुनि तन पुलकि नयन भरि बारी। बोले मरत धीर धरि भारी ॥ प्रभु प्रिय यूज्य पिता सम आपू। कुलगुरु सम हित माय न बापू॥१॥ सुन कर पुलकित शरीर से नेत्रों में जल भर कर भारी धीरज धारण करके भरतजी बोले । हे प्रभो! आप मेरे प्रिय-पूज्य माता-पिता के समान हैं और कुल-गुरु वशिष्ठजी के समान हितकारी माता-पिता भी नहीं ॥१॥ पिता-माता का हितकारित्व गुण इसलिये निषेध किया गया कि उसका धर्म कुल-गुरु में स्थापन करना इष्ट है । यह पर्यस्तापलुति अलंकार है। है