पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०५

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रामचरित मानस । ६४४ दो०- सोरहुँ भरत न पेलिहहि, मनसहुँ राम रजाइ। करिय नाच लनेह बस, कहेउ धूप बिलखाइ ॥२८॥ रामचन्द्र की आशा को भरत भूल कर मन से भी न टालेंगे। राजा ने अच्छी तरह लखा कर कहा कि स्नेह के अधीन होकर सोच न करना चाहिये ॥२६।। चौ०-राम-भरत-गुन-धनत सप्रीती। निशि दम्पतिहि पलक सम घीती॥ राजसमाज प्रात जुग जागे । न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे ॥१॥ रामचन्द्र और भरत के गुणों को प्रेम से विचार करते हुए रात राजा-रानी को पलक के समान बीत गई । दोनों राजसमाज प्राताकाश जगे और नहा नहा कर देव-पूजन करने नगे॥१॥ गे नहाइ गुरु पहिँ रघुराई । बन्दि चरन बाले रुख पाई ॥ नाथ भरत पुरजन महतारी । सोक विक्षल बनबास दुखारी ॥२॥ रघुनाथजी स्नान कर गुरुजी के पास गये, चरणों की वन्दना करके रुख पाकर बोले। हे नाथ ! भरत, नगर के लोग और माताएँ एक तो शोक से विकल, दूसरे वन के निवास से दुःखी हैं ॥२॥ सहित समाज राउ मिथिलेसू । बहुत दिवस भये सहत कलेसू ॥ उचित होइ सोइ कीजिय नाथा । हित सबही कर रउरे हाथा ॥३॥ समाज के सहित राजा जनकजी को बहुत दिन कष्ट सहते हो गया। हे नाथ ! रचित हो वह कीजिये, सभी की भलाई आप ही के हाथ में है ॥३॥ अस कहि अति सकुचे रघुराऊ । मुनि पुलके लखि सील सुभाऊ । तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा । नरक सरिस दुहुँ राज-समाजो ॥४॥ ऐसा कह कर रघुनाथजी, बहुत लजा गये, उनका शील स्वभाव देख मुनि पुलकित होकर वाले । हे रामचन्द्र ! आप के बिना सम्पूर्ण सुख का सामान दोनों राजसमाजों के लिये नरफ के बराबर (दुःखदायी) है ॥४॥ दो-प्रान प्रान के जीव के, जिव सुख सुख राम। तुम्ह तजि तात सुहास गृह, जिन्हहिं तिन्हहि बिधि बाम ॥२०॥ हे रामचन्द्रजी ! श्राप माण के प्राण, जीव के जीव और सुख के भी सुख है । हे तात! आप को छोड़ कर जिन्हें घर मुहाता उन पर विधाता टेढ़े हैं ॥ २६०॥. 1