पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/७०३

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. ६४२ रामचरित मानस । कहति न लीय सकुचि मन माहीं । इहाँ बसब रजनी भल नाहीं ॥ लखि झन शनि जनायेउ राज । हृदय सराहत सील सुभाऊ ॥१॥ सीताजी मन में विचारती है कि यहाँ रात में रहना अच्छा नहीं, परन्तु लज्जा से कहती नहीं है । उल के रुख को लख कर रानी ने राजा को अनाया, उनके शील स्वभाव की सराहना राजा रानी हदय में करते हैं ॥४॥ जानकी के मन की बात विना कुछ कहे या संकेत के रानी सुनयना का समाना और राजा को सचेत करता कि वे उन्हें जाने की आशा प्रदान करें "पिहित अलंकार' है। दो-बार बार मिलि अँटि सिय, बिदा कीन्हि 'सनमानि । कही समय सिर मरत-गति, रानि सुबानि सथानि ॥२८॥ पार बार मिल भेंट कर लीताजी का सन्मान करके विदा किया। चतुर रानी ने अवसर पा कर सन्दर वाणी में भरतजी की हालत कही ॥२७॥ चौ-सुनि भूपाल भरस व्यवहारू । सान सुगन्ध सुधा ससि-सारू । दे सजल-नयन पुलके तन । सुजस सराहन लगे मुदित मन ॥१॥ भरतजी का व्यवहार सुन राजा विचारने लगे कि वह सोने में सुगन्ध और चन्द्रमा का सार अमृत है। जल भरे नेत्रों को मूंद लिया, शरीर पुलकायमान हो गया और प्रसन्न मन से उनका सुयश सराहने लगे ॥१॥ सावधान सुनु सुमुखि लुलोचनि । भरत कथा भव-बन्ध बिमोचनि. धरस राज-नय ब्रह्म-विचारू । इहाँ जथामति मार प्रचारू ॥२॥ हे सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रवाली प्रिये ! सावधान, होकर सुनो, भरत की कथा संसार के घन्धन से छुड़ानेवाली है। धर्म, राजनीति और ब्रह्म-विचार इन विषयों में बुधि के अनुसार मेरा प्रवेश है ॥२॥ सो मति मोरि भरत महिमाहौं । कहइ काह छलि छु अति न छाहीं ॥ विधि गनपति अहिपति सिव सारद । कबि कोबिद बुध बुद्धि-बिसारद ॥३॥ वह मेरी मति सरत की महिमा को कहेगी क्या ? छल कर उसकी परछाहीं भी नहीं छू सकती । ब्रह्मा, गणेश, शेष, शिव, सरस्वती, कवि, विद्वान, पण्डित और बुद्धि-विचक्षण (चतुर ) भरत चरित कीरति. करतूती । धरम सोल गुन बिमल विभूती । समुझत सुनत सुखद सब काहू । सुचि सुरसरि रुचि निदरि सुधाहू ॥४॥ भरत के चरित्र, कीर्चि, करनी, धर्म, शील, गुण और निर्मलता का ऐश्वस्य समझने तथा सुनने में सब को सुख दायक है, पवित्रता में शहाजी का और स्वाद में अमृत का भी निरदिर करनेवाल ॥