पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । सोच देवताओं का और सङ्कोच भरतजी का, दोनो' भाों का एक साथ ही हदय में उत्पन होना 'प्रथम समुम्चय अलंकार' है। करि बिचार मन दोन्ही ठोका । राम-रजायसु आपन नीका ।। निज पन तजि राखेउ एन आरा । छोह सनेह कोन्ह नहिँ थोरा ॥४॥ विचार करके मन में यही पका किया कि अपनी भलाई तो रामचन्द्रजी की आशा में है। अपनी प्रतिभा को त्याग कर मेरे पण को रक्खा, यह कम छोह और लेह नहीं किया ॥४॥ दो०-कीन्ह अनुग्रह अमित अति, सब विधि सीतानाथ । करि प्रनाल बोले भरत, जारि जलज जुग हाथ ॥२६॥ सीतानाथ ने सब तरहसे बहुत बड़ी कृपा की। तब भरतजी प्रणाम कर के दोनों करकमलों को जोड़ कर बोले ॥२६६।। चौ.-कहउँ कहावउँ का अन्न स्वामी । कृपा-अम्बुनिधि अन्तरजामी। गुरु-प्रसन्न साहिब अनुकूला । मिटी मलिन मन कलपित सूला ॥१॥ हे स्वामिन् ! अब मैं पया कहूँ और पयो कहताऊँ, आप कृपा के समुद्र और अन्तर्यामी हैं (मेरे मन की सब बाते श्राप जानते हैं)। गुरुजी को प्रसन्न और स्वामी को अनकूल देख कर मेरे मन की उदासी तथा कल्पित शुल नष्ट हो गया ॥१॥ अपडर डरेउँ न सोच समूले । रबिहिन दोल देव दिसि भूले ॥ मोर अभाग मातु कुटिलाई । निधि-गति-विषम काल-कठिनाई ॥२॥

हे देव ! मैं अपडर (कल्पित भय) से डर गया, मेरे सोच को कोई जड़ नहीं, दिशाभूल

जाने पर सूर्य का दोष नहीं । मेरा दुर्भाग्य, माता की कुटिलता, विधाता को भीषण चाल और काल की कठिनता ॥ प्रस्तुत वर्णन तो यह है कि मैं अपने ही कल्पित भय से डर गया था, इसमें आपका दोष नहीं। परन्तु इसे सीधे न कह कर इस दृष्टान्त द्वारा असली बात प्रकट करना कि दिगभ्रम होने पर सूर्य का दोष नहीं ललित अलंकार' है। पाउँ रोपि सब मिलि मोहि धाला । प्रनतपाल पन आपन पाला ॥ यह नइ रीति न राउरि हाई । लोकहु बेद बिदित नहिँ गोई ॥३॥ सब ने मिलकर बढ़ता के साथ मुझे बिगाड़ा, परन्तु शरणागतों की रक्षा करने की अपनी प्रतिशा आपने पालन की। यह श्राप की नयी रीति नहीं है, लोक और वेद में विख्यात किसी से छिपी नहीं है ॥३॥ आप शरणागत रक्षक हैं, इससे मुझ सेवक की रक्षा की । नहीं तो बिगाड़नेवालों ने कोई बात उठा नहीं रक्खी, अगूढ़ व्या है।