पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६८२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । तात तुम्हहिँ मैं जानउँ नोके । करउँ काह असमञ्जस जी के ॥ राखेउ राय सत्य बोहि त्यागी । तनु परिहरेउ प्रेम-पन-लागी ॥३॥ हे भाई । मैं श्राप ने अच्छी तरह जानता हूँ, पर क्या करूँ ? मेरे जी को बड़ा अस. मअस है। मुझे त्याग कर राजा ने सत्य को रखा और प्रेम का पण रखने के लिये शरीर त्याग दिया ॥३॥ तासु बचन लेटत बड़ खोचू । तेहि ते अधिक तुम्हार संकोचू ॥ ता पर गुरु मोहिआयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ खोइ कीन्हा॥ उनका वचन मेटने में बड़ा सोच है, उससे बढ़ कर आप को सोच है । तिल पर गुरुजी मुझे आशा दी है, जो आप कहिये अवश्य ही मैं वही करना चाहता ॥४॥ प्रत्यक्ष में रामचन्द्रजी कहते हैं कि जो आप कहे अवश्य ही मैं उसे करूँगा, परन्तु साथ ही छिपा हुआ निषेध भी है कि ऐसे सत्यबादी पिता की बात - मेटने में असमञ्जस है कि जिन्हों ने लत्य के लिये प्राण तज दिया 'व्यक्ताक्षेप अलंकार' है। दो-मन प्रसन्न कर सकुच तजि, कहहु कराउँ सोइ आज । सत्यसन्ध रघुबर बचन, सुनि सा सुखी समाज ॥२६॥ सकुच छोड़ कर प्रसन्न मन से जो कहिये, आज मैं वही करूँगा । सत्यवती रघुनाथजी के वचन सुन कर लारा समाज सुखी हुभा ॥२६४॥ रघुनाथजी भूठ बोलनेवाले नहीं, जो कह चुके वह करेंगे। अब भरतजी के कहने की देरी है, यह व्यशार्थ वाच्यार्थ के बराबर तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग है। चौ०. सुर-गन सहित सभय सुरराजू । सोचहि चाहत होन अकाजू ॥ बनत उपाउ करत कछु नाहीं । राम-सरन सब गे मन माहीं ॥१॥ देवतायन्द के सहित देवराज इन्द्र भयभीत होकर सोचते हैं कि अब अकाज होना ही चाहता है । कुछ उपाय करते नहीं बनता है, सब मन में रामचन्द्रजी को शरण में गये अर्थात् मन ही मन पुकारने लगे कि-प्रमो! रक्षा कीजिये ॥१॥ बहुरि बिचारि परसपर कहहीँ । रघुपति भगत-भगति बस अहहीं । सुधि करि अम्बरीष दुरबाला । भे सुर-सुरपति निपट निरासा ॥२॥ फिर विचार कर आपस में कहते हैं कि रघुनाथजी भकों की भक्ति के वश में हैं। राजा अम्बरीष और दुर्वासा मुनि की याद करके देवता और इन्द्र अत्यन्त निराश हो गये ॥२॥ अम्बरीष और दुर्वासा का स्मरण हाना 'स्मरण अलंकार' है। अम्बरीष और दुर्वासा का इतिहास इसी काण्ड में २१७ वें दोहे के धागे चौथी चौपाई के नीचे की टिप्पणी देखिये। सहे सुरन्ह बहु काल बिषादा । नरहरि किये प्रगट प्रहलादा ॥ लगि लगि कानकहहिँ धुनि माथा । अब सुर-काज भरत के हाथा॥३॥ कोई कहने लगे कि-देवताओं ने बहुत काल तक दुल सहा, तब प्रसाद ने नृसिंह भग-