पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६७४

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1 द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । भरतजी के कथन में स्वयम् सक्षित शब्दध्वनि है कि-महाराज ! ऐसा सम्भव नहीं कि सैकड़ों पीढ़ी पर्यन्त सब के कपाल में ब्रह्मा ने उत्तम. ही फल लिखा हो, अवश्य ही अशुभ कर्म के अनुसार अशुभ फल भी लिखे होगा पर इस वंश में जो सर श्रेष्ठ फल भोगी होते आते हैं उसका एकमात्र कारण यह है (जो नीचे की चौपाई में कहते हैं)। दलि दुख सजह सकल कल्पाना । असि असील राउरि जग जाना । सो गोसाँइ विधि-गति जेहि छकी। सकइको ठारि टेक जो टेकी ॥ दुःखों का नाश करके सम्पूर्ण कल्याण की सजनेवाली ऐसी आपको आशीष है, इसको संसार जानता है। स्वामिन् ! श्राप वही हैं जिन्हा ने ब्रह्मा की गति (कर्म रेख) को मिटा दिया, फिर जो लल्प करके उसपर शाप अड़ जायेंगे तो उसे कौन टाल सकता है? दो०-वृशिय माहि उपाउ अब, सो संब मार अभाग । सुनि सनेह-भय बचन गुरू, उर उमगा अनुरागः ॥२५॥ अय शाप मुझसे उपाय पूछते हैं, वह सब मेरा श्रभाग्य है । इस तरह स्नेहपूर्ण भरतजी के वचनों को सुन कर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया ॥२५॥ 'अब' शब्द से अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि है कि तब अर्थात् हमारे पूर्वजों के अशुभ-फल मिटाने के समय आपने किसी से उपाय नहीं पूछा, लमयानुसार आशीर्वाद देकर शुभ फल दिया ! परन्तु आज जब मेरे कल्याण की धारी आई, तब आप दूसरों से उपाय पूछते हैं, वह मेरे दुर्भाग्य की बात है। चौ०-तात बात फुरि राम कृपाही । राम बिमुख खिधि सपनेहुँ नाही। सकुचउँ तात कहत एक माता । अरथ तजहिं बुध सरबस जाता ॥१॥ गुरुजी बोले:-हे तात ! बात सत्य है; पर वह रामचन्द्र की कृपा ही से हुई थी और रामचन्द्र के विरुद्ध कार्य की सिद्धि स्वप्न में भी नहीं हो सकती। हे पुत्र ! एक बात कहते

हुए मैं सकुचाता हूँ, परन्तु बुद्धिमान सर्वस्व जाते हुए आधा. खुशी से त्याग देते हैं ॥१॥

तुम्ह कानन गवनहु होउ भाई । फेरियहि लखन-सीय-रघुराई । सुनि सुबचन हरणे दोउ साता। भे प्रमोद परिपूरन गाता ॥२॥ तुम दोनों भाई मन को जानो तो मैं लक्ष्मण, सीता रधुनाथ को लौटा ले चलूँ। यह सुन्दर वचन सुन कर दोनों भाई प्रसश हुए, उनके शरीर अत्यन्त आनन्द से परिपूर्ण हो गये ॥२॥ राजापुर की प्रति में सकुचउँ तात कहत एक पाता। भे प्रमोद परिपूरन गाता पाठ है। मालूम होता है बीच की चौपाइयाँ नकल करने से छूट गई हैं। उनके बिना प्रसङ्ग ही निरर्थक सा हो जाता है। मन प्रसन्न तनु तेज बिराजा । जनु जिय राउ राम भये राजा । बहुत लान लोगन्ह लघु हानी । सम दुख सुख सच रोवहिँ रानी ॥३॥ मन में प्रसन्न हुए और शरीर में तेज विराजमान हो गया, ऐसा मालूम होता है मानों