पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५९

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रामचरितमानस । मिलि न जाइ नहिँ गुदरत बनई । सुकवि लखन मन की गति भनई । रहे राखि सेवा मारू । चढ़ी चङ्ग जनु खैच खेलारू ॥३॥ न भरतजी से मिलते बनता है और न स्वामी से कहते बनता है, अच्छे कवि लक्ष्मण जी के मन की गति को कहते हैं, कि सेवा-धर्म पर बोझ रख छोड़ा अर्थात् स्वामी को बिना जनाये और आज्ञा पाये भरतजी से मिलना उचित नहीं (मन को भरतजी की ओर से साव- धानी से क्रमशः खींचा) ऐसा मालूम होता है माने ऊँचे चढ़ी दुई पता को नीचे उतारने के लिए क्रम क्रम से बचा कर खेलाड़ी खींचता हो ॥३॥ लक्ष्मणजी ने मन को कम क्रम से भरतजी की ओर से खील, यही उत्प्रेक्षा का विषय है। आकाश में चढ़ी हुई पतंग को नीचे उतारते समय स्नेलाड़ी बार चार ढोल दे सम्हाल कर उतारते ही हैं। यह 'उत्कविषया वस्तूमेक्षा अलंकार' है। कहत सप्रेम नाइ महि माथा । भरत प्रनाम करत रघुनाथा ॥ उठे राम सुनि प्रेम अधीरा । कहुँ पट कहुँ निषङ्ग धनु धरती में मस्तक नवा कर प्रेम से कहते हैं, हे रधुनाथजी ! भरतजी प्रणाम करते हैं। सुन कर रामचन्द्रजी प्रेम में अधोर हो उठे, कहीं वस्त्र, कहीं तरकस और कहीं धनुष-बाप रह तीरा ॥ गये ॥४॥ दो०-बरबस लिये उठाइ उर, लाये कृपानिधान । भरत राम की मिलनि लखि, बिसरा सबहि अपान ॥२१०॥ कृपानिधान रामचन्द्रजी ने ज़ोरावरी से भरतजी को उठा कर हृदय से लगा लिया। भरतजी और रामचन्द्रजी का मिलनो देख कर सभी अपने को भुला कर (प्रेम मुग्ध हो गये) ॥२४॥ चौ०-मिलनिप्रीति किमि जाइ बखानी। कवि-कुल-अगम करम मनबानी॥ परम प्रेम पूरन दोउ भाई । मन बुधिचित अहमिति बिसराई ॥१॥ मिलाप की प्रीति कैसे बखानी जा सकती है, वह कर्म, मन और वाणी से कवि-कुल के लिये दुर्गम है। दोनों भाई मन, बुद्धि चित्त और अहङ्कार भूल कर प्रेम में भरे हैं ॥ १ ॥ कहहु सुप्रेम प्रगट को करई । केहि छाया कबि मति अनुसरई ॥ कविहि अरथ आखर बल साँचा । अनुहरि ताल गतिहि नट नाँचो ॥२॥ कहो इस सुन्दर प्रेम को कौन प्रगट करे। किसकी छाया से कवि को बुद्धि कह सकती है ? कवि को अक्षर और अर्थ का सच्चा बल है, ताल की गति के अनुसार ही नचवैया नोचता है ॥२॥ अक्षरों में इतना अर्थवल नहीं है कि उस प्रेम को यथातथ्य प्रगट कर सकें, यह लक्षणा. मूलक वाच्यविशेष व्या है।