पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६५५

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रामचरित-मानस । ५९४ हैं। यह श्रेष्ठ राजा सम्पूर्ण अलों से भरपूर है और रामचन्द्रजी के चरणों में भरोसा रख कर मन में प्रसन्न रहता है । दो-जीति मोहि-महिपाल दल , सहित धिबेक भुआल । करत अकंटक राज्य पुर, सुख सम्पदा सुकाल ॥२३॥ प्रशान रूपी राजा का सेना के सहित जीत कर शान रूपी राजा अपनी राजधानी में अकंटक (शत्रुहीन) राज्य करता है, उसके राज्य में सुख सम्पति और सुकाख छावा हुआ है ॥२३५॥ चौ०-बन प्रदेस मुनि-बास घनेरे । जनु पुर नगर गाउँ-गन खेरे। बिपुल बिचित्र बिहगभुगनाना प्रजा-समाज न जाइ अखाना ॥१॥ वन रूपी प्रान्त में मुनियों के बहुत से निवासस्थान हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो शहर कुसवा, गाँव और छोटी छोटी पुरहाई हो । नाना प्रकार के असंख्यो विलक्षण पक्षी और मृग प्रजा को समुदाय है जो वखाना नहीं जा सकता ॥१॥ खगहा करि हरि बाघ बराहा । देखि महिष वृष साज सराहा ॥ बयर बिहाय चरहिं एक सङ्गा । जहूँ तहँ मनहुँ सेन चतुरङ्गा ॥२॥ गैडो, हाथी, सिंह बाघ, सुअर, भंसा और चैलो की सजावट देख कर सराहते हो बनता है। स्वाभाविक वैर त्याग कर एक साथ विचरते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों जहाँ तहाँ चतुरहिनी सेना हो ॥२॥ झरना झरहिं मत्त गजगाजहिँ । मनहुँ निसान विविध विधि बाजहि । चक चकोर चातक सुक पिकगन । कूजत मज्जु भराल मुदित मन ॥३॥ झरनों से जल गिरता है और मतवाले हाथी गर्जते हैं, ऐसा मालूम होता है मानों नगाड़े और अनेक प्रकार के बाजे बजते हों। चकवा, चकोर, पपीहा, सुग्गा कोयल और इंस मुंड के झुड प्रसन्न मन ले सुहावनी सुन्दर बोली वोलते हैं ॥३॥ मलि-गन गावत नाचत मारा । जनु सुराज मङ्गल चहुँ ओरा। बेलि पिटप तुन सफल सफूला । सब समाज मुद-मङ्गन-मूला ॥१॥ भ्रमर्गे के झुण्ड गान करते और मुरैले नाचते हैं, ऐसा मालूम होता है मानों अच्छे राज्य में चारों ओर मङ्गल होता हो । लता, वृक्ष और घास (छोटे छोटे पौधे) फूले फले हैं, सब समाज अानन्द मंगल का मूल है ॥४॥ दो०-राम-सैल सोमा निरखि, भरत हृदय अति प्रेम । तापस तप-फल पाइ जिमि, सुखी सिराने नेम ॥ २३६ ॥ रामचन्द्रजी के पर्वत की शोभा को देख कर भरतजी के हृदय में अत्यन्त प्रम हुआ। ऐसे सुखी हुए जैसे तपस्वी तप का फल पा कर नियम समाप्त होने से सुखी होता है ॥२३६१