पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । करत मनोरथ जस जिय जाके । जाहिँ सनेहः सुरा सब छाके । सिथिल-अङ्ग पग मर्ग डगि डालहिँ। बिहबल बचन प्रेम-बस बोलहिँ॥२॥ जिसके मन में जैसी भावना है मनोरथ करते सब स्नेह रूपी मदिरा से छुके (मस्त) चले जाते हैं। उनके शरीर ढीले पड़ गये, रास्ते में पाँव रखते डगमगाते हैं और प्रेम के अधीन हुए विह्वल (व्याकुलता भरे) वजन बोलते हैं ॥२॥ स्नेह पर मन्दिरा का आरोप और भरतजी के लहित सम्पूर्ण समास पर पान करने पाले का आरोपण किया गया है। जैसे अधिक मद-पान करने से अङ्ग ढीला पड़ जाता है, रास्ते में सीधे पाँव नहीं पड़ता, मुख से स्पष्ट और ठिकाने की बात नहीं निकलती। उसी प्रकार सारा समाज समीप पहुंचने पर अधिक स्नेह से मतवाला हो गया, अङ्ग शिथिल गये, रास्ते में सीधे परंग नहीं पड़ता, प्रेम-वश घबराहट की बात अस्पष्ट बोलते हैं। यह 'समनभेदरूपक अलंकार' है। यद्यपि राजापुर की प्रति और सुटका में उपयुक पाठ है, किन्तु सभा की प्रति में 'जाहिं सनेह सुधा सब छाके' पाठ है और अर्थ भी वैसा ही किया गया है कि-"सभी लोग स्नेह रूपी अमृत से छके जाते थे" । सुधा-पान के लक्षण कविजी ने नहीं कहे, यहाँ तो मद-पान के लक्षण कहे गये हैं। राम-सखा तेहि समय देखावा । सैल-सिरोमनि सहज सुहावा । जासु समीप सरित-पय-तीरा । सीय समेत बसहिं दोउ बीरा ॥३॥ उस समय रामसखा-गुह ने स्वाभाविक सुन्दर पर्वतों के शिरोमणि (कामतानाथ) को दिखाया। जिसके समीप पयस्विनी-नदी के किनारे सीताजी के सहित दोनों वीर निवास करते हैं ॥३॥ देखि करहिँ सब दंड-प्रनामा । कहि जय जानकिजीवन रामा । प्रेम मगन अस राज-समाजू जनु फिरि अवध चले रघुराजू ॥४॥ देख कर सब दण्डवत प्रणाम करते हैं और जानको जीवन रामचन्द्रजी की जय जयकार मनाते हैं । राम-समाज ऐला प्रेम में मन मालूम होता है मानों रघुनाथजी अयोध्या को लौट चले हो ॥४॥ पर्वत का दर्शन उत्प्रेक्षा का विषय है। रघुनाथजो समय पर अयोध्या को लौटेंगे। यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। दो०-भरत प्रेम तेहि समय जस, तस कहि सकइ न सेषु । कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुख, अहमम मलिन जनेषु ॥२२॥ उस समय भरतजी को जैसा प्रेम हुआ वैसा शेषजी भो नहीं कह सकते। कवि को तो उसका कहना कैसे दुर्गम है जैसे अहम्मति (अविद्या-माया) से मलिन मनुष्य को ब्रह्मानन्द का अनुभव दुर्लभ है ॥२२॥ . 1 .