पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६४१

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रामचरित मानस । चौ.-कहहि सप्रेम एक एक पाहीं । राम-लखन सखि होहिं कि नाही। बय बपु बरन रूप सोइ आली। सील-सनेह-सरिस सम-चाली ॥१॥ स्त्रियाँ प्रेम के साथ एक दूसरी से कहती हैं कि हे सखी । ये राम लक्ष्मण हैं या नहीं? हे बाली ! अवस्था, शरीर, रङ्ग और रूप वही है, शील-स्नेह परावर, चासी भी उन्हीं के समान है ॥१॥ राम-लक्ष्मण और भरत शत्रुहन की अवस्था, शरीर, रग, रूप, शील, स्नेह और चात में भेद न दिखाई देना 'सामान्य अलंकार है। बेष न सो सखि. सीय न सङ्गा । आगे अनी चली चतुरङ्गा । नहिँ प्रसन्न-मुख मानस-खेदा । सखि सन्देह होइ एहि भेदा ॥२॥ कोई कहती है-हे सखी! इनका वैसा वेश नहीं है, खीताजी साथ में नहीं है और आगे चतुरङ्गिनी सेना चली जा रही है। ये प्रसन्न-मुख नहीं है मन में खेद है, हे सहेलीन अन्तरों से सन्देह होता है ॥२॥ अवस्था प्रादि में मैंद नहीं है, पर वह वेष नहीं, सीताजी साथ नहीं, आगे सेना चल रही है, मुख प्रसन्न नहीं, मन में स्नेद है। इन कारणों से भेद ज्ञात होना 'विशेषकोन्मीसित अलंकार' है। तासु तरक तिय-गन मन मानी । कहहिँ सकल तोहि समन यांनी ॥ तेहि साहि बानी फुरि पूजी । बोली मधुर बचन तिय दूजी ॥३॥ उसकी विवेचना (हेतु-पूर्ण युक्ति) को स्त्रियों ने मन में मान लिया, सब कहती है कि तेरे लमान कोई चतुर नहीं है। उसकी वाणी सत्य होने की सराहना करती हुई दूसरी स्त्री मधुर धचन बोली ॥३॥ कहि सप्रेम सब कथा-प्रसङ्ग । जेहि बिधि राम-राज-रस-भङ्गं ॥ भरतहि बहुरि सराहन लागी। सील सनेह सुभाय सुभागी ॥४॥ जिस तरह रामचन्द्रजी के राजतिलक का आनन्द नष्ट हुआ वह सब कथा-प्रसङ्ग प्रेम के साथ कह कर फिर वह साभाग्यवती भरतजी के शील, स्नेह और स्वभाव की प्रशंसा करने दो०-चलत पयादे खात फल, पिता-दीन्ह तजि राज। जात मनावन रघुबरहि, भरत सरिस को आज ॥ २२२ ॥ पैदल चलते, फल खाते, पिता को दिया हुआ राज्य त्याग कर रघुनाथजी को मनाने के लिये जाते हैं, आज भरतजी के समान (धन्य) कौन है ? ॥२२२॥ चौo-आयप अगति भरत आचरनू । कहत सुनत दुख-दूषन-हरन् । जो किछु कहब थोर सखि साईरांम-बन्धु अस काहे न होई ॥१॥ भरतजी का माईचारा, भक्ति और व्यवहार कहने सुननेवालों के दुख-दोष का हरने- लगी ।