पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६३३

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कहा ॥२१३॥ ५७२ रामचरित-मानस । दो-राम-बिरह व्याकुल भरत, सानुज सहित समाज । पहुनाई करि हरहु बम, कहा मुदित मुनिराज ॥२१३॥ रामचन्द्रजी के वियोग में भरतजी छोटे भाई शत्रुहन और समाज के सहित व्याकुल है। उनकी मेहमानी करके थकावट दूर करो, इस प्रकार प्रसन्न होकर मुनिराज ने सिद्धियों से चौ०-रिधि-सिधिसिर धरि मुनिबरबानी। बड़लागिनि आपुहि अनुमानी॥ कहहि परसपर सिधि समुदाई । अतुलित अतिथि रामलघु भाई ॥१॥ ऋद्धि-सिद्धियों ने मुनिवर को वाणी माथे चढ़ा कर अपने को पड़ी भाग्यशालिनी समझा। सब लिद्धियाँ आपस में कहती हैं कि रामचन्द्रजी के छोटे भाई (भरतजी) अद्वितीय मेहमान हैं अर्थात् उनको प्रसन्न करना हम लोगों की शक्ति से बाहर है ॥३॥ मुनि-पद बन्दि करिय सोइ आजू । हाइ सुखी सब राज-समाजू ॥ अस कहि रचे रुचिर गृह नाना । जो बिलोकि बिलखाहिँ विमाना॥२॥ मुनि के चरणों की वन्दना करके श्राज वही करना चाहिये कि सब राजसमाज सुखी हो। ऐसा कह कर उन्हों ने नाना प्रकार के सुन्दर घर बनाये, जिन्हें देख कर विमान भी उदास हो जाते हैं ॥२॥ भोग-बिभूति भूरि भरि राखे । देखत जिन्हहिं अमर अभिलाखे । दासी दास साज सब लीन्हे । जोगवत रहहिँ मनहिं मन दीन्हे ॥३॥ भोगविलास का बलुते ला सामान उन घरों में ऐश्वर्य-पूर्ण मर रमना, जिन्हें देख कर देवता ललचाते हैं। दास दासियाँ सब वस्तु लिये लोगों के मन से मन लगाये आदर करती रहती हैं ॥३॥ सब समाज सजि सिधि पल माहौँ । जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाही प्रथमहिँ बास दिये सब केही । सुन्दर सुखद जथाचि जेही ugu सिद्धियों ने सब समाज के लिये पल भर मैं तैयारी को, जो सुख देवलोक में स्वप्न में भी नहीं है ॥ पहले ही सक को जिसकी जैसी इच्छा थी उसको वैसा सुन्दर सुखदायी ठहरनेको स्थान दिया ॥४॥ दो-बहुरि सपरिजन भरत कहँ, रिषि अस आयसु दीन्ह । विधि-बिसमय-दायक बिभत्र, मुनिबर तप.बल कीन्ह १२१४॥ फिर कुटुम्धीजनों के सहित भरतजी के लिये ऐसी अाशा दी कि ब्रह्मा को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला ऐश्वर्य मुनिवर ने तपोबल से प्रगट किया ॥२१॥