पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२२

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द्वितीय सोपोन, अयोध्याकाण्ड कोई निषाद की प्रशंसा करके अपनी निन्दा करते हैं, उस समय के मोह और विषाद को कौन कह सकता है ? (कोई नहीं) ॥३॥ एहि बिधि राति लोग सब जागा । भा भिनुसार गुदारा लागा ॥ गुरुहि सुनाव चढ़ाइ सुहाई । नई नाव सब मातु चढ़ाई ॥४॥ इस तरह सब लोग रात में जगे, सबेरा होने पर पार उतरने का काम लगा। गुरुजी को सुन्दर नाव पर चढ़ा कर सब माताओं को अच्छी नवीन नौका पर सवार कराया ॥४॥ दंड चारि महँ आ सब पारा । उतरि भरत तब सबहि संभारा ॥३॥ चार घड़ी में सव पार हो गये, तब नाव से उतर कर भरतजी ने सभी का संभाल किया अर्थात् कोई छूट तो नहीं गया है ॥५॥ दो प्रातक्रिया करि मातु-पद, बन्दि गुरुहि सिर नाइ। आगे किये निषाद-गन, दीन्हेउ कठक चलाइ ॥२०२॥ प्रातःकर्म करके माताओं के चरणों का वन्दन कर गुरुजी को मस्तक नवा निषादी को आगे फरके सेना को चला दिया ॥२०२॥ निषाद-गण पथ-दर्शक रूप में श्रोगे किये गये। चौथ-कियेउ निषादनाथ अगुआई । मातु पालको सकल चलाई ॥ साथ बोलोइ भाइ लघु दीन्हा । बिप्रन्ह सहित गवन गुरु कीन्हा ॥१॥ निषाद राज ने अगुआई किया, सम्पूर्ण माताओं की पालकियाँ चलवाई छोटे भाई शत्रुहनजी को बुला कर साथ में कर दिया, ब्राह्मणों के सहित गुरुजी ने गमन किया ॥१॥ आपु सुरसरिहि कीन्ह प्रनामू। सुमिरे लखन सहित सिय-रामू ॥ गवने भरत पयादेहि पाये । कोतल सङ्गजाहि डोरि आये ॥२॥ आप गङ्गाजी को प्रणाम किया; लदमणजी के सहित सीताजी और रामचन्द्रजी का स्म- रण कर भरतजी पाँव से पैदल ही चले । सजे सजाये घोड़े साथ में बागडोरी लगाये सेवक- गण खाली लिये जाते हैं ॥२॥ कहहिं सुसेवक बारहिँ बारा । होइय नाथ अस्व असवारा ॥ राम पयादेहि-पाय सिधाये । हम कह रथ गज बाजि बनाये ॥३॥ अच्छे सेवक बार बार कहते हैं, हे नाथ ! घोड़े पर सवार हो लीजिये। भरतजी उत्तर देते हैं कि-रामचन्द्रजी (इसी माग में) उबेने पाँव पैदल गये हैं और हमारे लिये रथ, हाशी, घोड़े बने हैं ? ॥३॥ सिर भर जाउँ उचित अस मारा। सब तें सेवक-धरम कठोरा ॥ देखि भरत-गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक-गन गरहि गलानी ॥ मुझे तो ऐसा उचित है (जिस रास्ते में स्वामी पैदल गये हैं उसमें) सिर के बल जाऊँ, .