पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२१

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५६० रामचरितमानस । अन्तिम चरण में कवि इच्छित अर्थ के अतिरिक्त शब्दों की गम्भीर गठन के कारण एक दूसरा अर्थ भी भासित होता है, ज्योकि 'विधि धामहि शब्द श्लिष्ट है। यह निश्चय है कि दोष ब्रह्मा की स्त्री सरस्वती का 'समालोक्ति अलंकार' है। हरिगीतिका-छन्द । बिधि बाम को करनी कठिन जेहि, मातु कोन्ही बावरी । तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु, सादर सरहना रावरी ॥ तुलसी न तुम्ह साँ राम प्रीतम, कहत हैंौँ साहैं किये । परिनाम मङ्गल जानि अपने, आनिये धीरज हिये ॥८॥ यह विधाता के भाया की कठोर करतूत है जिसने माता (केकयी) को पगली बना दिया। उस रात प्रभु रामचन्द्रजी बार बार आदर के साथ आप को प्रशंसा करते थे। तुलसीदासजी कहते हैं कि आप के समान रामचन्द्रजी को कोई प्यारा नहीं है, इस बात को मैं सौगन्द करके कहता हूँ, परिणाम मझल-मय जान कर अपने हृदय में धीरज लाइये ॥८॥ सो-अन्तरजामी राम, सकुच सप्रेम कृपायतन ।, चलिय करिय बिस्राम, यह विचार दृढ़ आनि मन ॥२०॥ रामचन्द्रजी अन्तर्यामी, सङ्कोची, प्रेमो और कृपा के स्थान हैं । ऐसा दृढ़ विचार मन में ला कर चलिये विश्राम कीजिये ॥२०॥ 'अन्तार्यामी, संकोची, प्रेमी और दयानिकेतः सभी संसाये साभिप्राय है ! मन्तः कारण की बात जाननेवाले से कोई बात छिपी नहीं रह सकती। सङ्कोची-कभी शील को छोड़ नहीं सकते । प्रेमी हैं, इससे प्रीति भूल नहीं सकते । दया के स्थान हैं, तो अवश्य ही दया करेंगे। चौ०-सखा बचन सुनि उर धरि धीरा । बास चले सुमिरत रघुबीरा ॥ यह सुधि पाइ नगर नर-नारी । चले बिलोकन आरत भारी ॥१॥ मित्र के वचन सुन कर हृदय में धीर धारण कर रघुनाथजी का स्मरण करते हुए डेरे की ओर चले । यह खबर पाकर नगर के स्त्री-पुरुष बड़ी आतुरता से देखने चले ॥१॥ परदछिना करि करहिं प्रनामा । देहि कैकाहि खारि निकामा । भरि भरि बारि बिलोचन लेहौं । बाम विधातहि दूषन देहीं ॥२॥ प्रदक्षिणा करके प्रणाम करते हैं और केकयी को अत्यन्त दोष देते है । आँखों में प्राँस भर भर कर ब्रह्मा की प्रतिकूलता पर दूषण देते हैं ॥२॥ एक सराहहिं भरत सनेहू । कोउ कह नृपति निबाहेउ नेहूं ॥ निन्दहिँ आपु सराहि निषादहि । को कहि सकइ बिमाह बिषादहि ॥३॥ कोई भरतजी के स्नेह की बड़ाई करते हैं, कोई कहते हैं राजा ने स्नेह को निबाहा।