पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६२०

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। द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । पैरिउ राम बड़ाई करहीं। बोलनि मिलनि बिनय मन हरही । सादर कोटि कोटि सत सेखा। करि न सकहिं प्रभु-गुन-गन लेखा ॥४॥ शत्र, भी रामचन्द्रजी की बड़ाई करते हैं, उनकी बोली, मिलनसारी और नम्रता मन को हर लेती है। सौ सौ करोड़ शेषनाग आदर-पूर्वक प्रभु रामचन्द्रजी के गुण समूह का लेखा करना चाहे तो भी वे नहीं कर सकते ॥४॥ सभा की प्रति में 'सारद कोटि कोटि सत लेखा पाठ है। दो०-सख सरूप रघुबंस-मनि,मङ्गल-माद-निधान । ते सावत डोसि महि, विधि गति अति बलवान ॥२००१ सुख के स्वरूप, माल और मानन्द के स्थान रघुकुत्त के रत्न रामचन्द्रजी हैं । वे कुश बिछा कर धरती पर सोते हैं ! विधाता की गति बड़ी बलवान है ॥२०॥ जिनको रत्न-जटित पलंग पर सोना चाहिये वे जमीन पर सोते हैं 'द्वितीय असङ्गति अलंकार' है। चौ०-राम सुना दुख कान न काऊ । जीवन-तरु जिमि जोगवइ राज॥ पलकनयनफनि-मनि जेहि माँती। जोगवहिँ जननि सकल दिन राती ॥१॥ रामचन्द्रजी ने दुःख कभी कान से नहीं सुना, राजा उनको जीवन वृक्ष जैसे रक्षित रखते थे। जिस तरह पलक आँखों की और सर्प मणि की रखवाली करते हैं, उसी प्रकार दिन रात सम्पूर्ण माताएँ रक्षा करती थीं ॥१॥ ते अब फिरत बिपिन पद-चारी। कन्द-मूल-फल-फूल अहारी ॥ धिग कैकई अमङ्गल मूला । अइसि प्रान-प्रियतम प्रतिकूला ॥२॥ वे अब पैदल वन में फिरते हैं और कन्द, मूल, फल, फूल भोजन करते हैं। अमङ्गलों की मूल केकयी को धिक्कार है, जो प्राण-प्यारे के विपरीत हुई ॥२॥ मैं धिगधिग अघ-उदधि अभागी । सब उतपात भयहु जेहि लागी॥ कुल-कलङ्क करि सृजेउ बिधाता । साँइ-दोह मेाहि कीन्ह कुमाता ॥३॥ मैं पाप का समुद्र और ममागाहूँ, मुझ को बार बार धिक्कार है कि जिसके कारण यह सब उत्पात हुआ । ब्रह्मा ने मुझे कुल का कलङ्क बना कर पैदा किया और कुमाता- केकयी ने स्वामिद्रोही बनाया ॥३॥ मुनि सप्रेम समुझाव निषादू । नाथ · करिय कत्त बादि बिषादू ॥ राम तुम्हहिँ प्रियतुम्ह प्रिय रामहि । यह निरजोसदोसबिधि बामहि ॥४॥ सुन कर प्रेम से निषाद समझाता है--हे माथ! व्यर्थ विषाद काहे को कर रहे हो ? राम- चन्द्रजी श्राप को प्रिय हैं और आप रामचन्द्रजी को प्यारे हैं यह निश्चय है, दोष तो विधाता की टेढ़ाई का है ॥४॥ ।