पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६१३

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५५२ रामचरित मानस । सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा कर पछिताहिँ यिमूढा। मरत सुभाउ सील बिनु बूझे । बड़ि हितहानि जानिबिनु जूझे ॥४॥ सुन फर गुह ने कहा-बुड्ढा अच्छा कहता है, जल्दबाजी कर के मूर्ख पीछे पछताते हैं। भरतजी का स्वभाव और शील विना समझे जाने युद्ध करने से बड़ी हित-हानि है in दो०-गहहु घाट घट समिटि सब, लेउँ मरम मिलि जाइ । बूमि मित्र अरि मध्य गति, तब तस करिहउँ आइ ॥१२॥ सब योदा इकट्ठे होकर घाट छेक ली, मैं जाकर उनसे मिल कर भेद लेॐ। शत्रु, मित्र और मध्यस्थ का ढक समझ कर, तव श्राकर वैसा करूगा ॥२२॥ चौ--लखब सनेह सुभाय सुहाये । वैर प्रीति नहिं दरइ दुराये ॥ अस कहि भेंट सँजोवन लागे । कन्द मूल फल खगमृग माँगे ॥१॥ उनके स्वाभाविक सुहावने स्नेह को परख लूंगा, वैर और प्रीति छिपाने से नहीं छिपती । ऐसा कह कर भेंट लजवाने लगा, कन्द, मूल, फल, पक्षी और मृग मँगवाया ॥२॥ मीन पीन पाठीन पुराने । भरि भरि भार कहारन्ह आने ॥ मिलन साज सजि मिलन सिधाये । मङ्गल-मूल सगुन सुभ पाये ॥२॥ कहारों ने कावरियों में भर भर कर पुराने मोटे पहिना मछली ले आये। मिलने का सामान सज कर मिलने के लिये पयान किया, मङ्गल-मूल सुन्दर सगुन मिले ॥२॥ निषादराज युद्ध की तैयारी को भेंट की वस्तुमा द्वारा भरतजी से छिपाने की क्रिया करता है जिसमें उन्हें वह वात प्रगट न हो 'युक्ति अलंकार' है । भेंट की चीज़ों में भी शत्र मित्र मध्यस्थ भाव परखने की युक्ति है । कन्द मूल फल सात्विकी पदार्थ हैं, खग-मृग राजसी पार मछली तामसी है । मित्रभाव का ज्ञान सात्विको पदार्थ ग्रहण से, मध्यस्थ का राजसी और शत्रुभाव का ज्ञान तामसी वस्तु ग्रहण करने से होगा। देखि दूरि ते कहि निज नाभू । कीन्ह मुनीसहि दंडप्रनामू ॥ जानि राम प्रिय दोन्हि असीसा । भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा ॥३॥ सुनिराज वशिष्ठजी को दूर ही से देख कर निषाद ने अपना नाम कह कर दंडवत प्रणाम किया। मुनीश्वर ने उसको रामचन्द्रजी का प्रेमी जान कर आशीर्वाद दिया और भरतजी को समझा कर कहा कि यह रामसखा है ॥शा रामसखा सुनि स्यन्दन त्यागा। चले उत्तरि उमगत अनुरागा गाउँ जाति गुह नाउँ सुनाई । कीन्ह जोहार माथ महि लाई ॥४॥ रामचन्द्रजी का मित्र सुन कर रथ त्याग दिया, उतर कर प्रेम में उमड़ते हुए चला । गुह ने अपना नाम, जाति और गाँव सुना कर धरती पर मस्तक रख प्रणाम किया ll 2