पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६११

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रामचरित-मानस । ५५० अच्छी मृत्यु के लिये एक समर में मरना ही पर्याप्त है, तिस पर अन्य प्रवल हेतुओं का विद्यमान रहना 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। मृत्यु अङ्गीकार करने योग्य वस्तु नहीं है, पर रामकार्य के लिये प्रसन्नता से उसे स्वीकार करना 'अनुशा अलंकार दोनों समप्रधान हैं। स्वामि काज करिहउँ रन रारी । जस धवलिहउँ भुवन दस चारी॥ तजउँ मान रघुनाथ निहोरे' । दुहूँ हाथ मुद, मोदकमोरे ॥ ३ ॥ स्वामी के कार्य के लिये रण में युद्ध करूंगा और चौदहे। लोकों में निर्मल यश फैलाऊँगा। रघुनाथजी के उपकार के लिये प्राण त्याग दूंगा, मेरे दोनों हाथों में आनन्द के लड्डू हैं ॥३॥ साधु समाज न जा कर लेखा.। रामभगत महँ जासु न रेखा ॥ जाय जियत जग सो महि भारू । जननी जोबन बिटप कुठारू॥ १ ॥ साधुमण्डली में जिसकी गिनती न हुई और रामभक्तों में जिसका चिह (बड़ाई) नहीं। वह पृथ्वी का बोझ कप व्यर्थ ही संसार में जीता है, माता के यौवन रूपी वृक्ष का कुल्हाड़ा है ॥ दो०-बिगत बिषाद निषादपति, सबहि बढ़ाइ उछाह । . सुमिरि राम माँगेउ तुरत, तरकस धनुष सनाह ॥१०॥ विषाद रहित होकर निषादराज ने सय के उत्साह को बढ़ाया और रामचन्द्रजी काम- रण करके तुरन्त अपना तरकस, धनुष और कवच मँगवाया ॥ १६० ।। निषादराज के मन में विषाद सञ्चारी भाव का शान्ति युद्धानुराग कपी उत्साह के अङ्ग से हुई, यह 'समाहित अलंकार' है। चौबेगहि भाइहु सजहु सँजोऊ । सुनि रजाइ कदराइ न कोऊ ॥ मलेहि नाथ सब कहहिँ सहरषा । एकहि एक बढ़ावहि करषा ॥१॥ हे भाइयो ! शीघ्र ही सब सामान सजो, मेरी आशा को सुन कर कोई डरे नहीं । सब निषादों ने हर्ष के साथ कहा, बहुत अच्छा स्वामिन् ! एक दूसरे से लड़ाई के जोश को बढ़ाने वाली बात करते हैं ॥१॥ चले निषाद जोहारि जोहारी । सूर सकल रन रूच रारी ॥ सुमिरि राम-पद-पङ्कज-पनहीं । भाथी बाँधि चढ़ाइन्हि धनुहीं ॥२॥ निषाद प्रणाम कर कर चले, वे सब -शूरवीर हैं जिनको लड़ाई अच्छी लगता है। राम चन्द्रजी के चरण कमल की जूतियों को स्मरण कर तरकस बाँधो और धनुष के रोदे चढ़ाये ॥२॥ . सभा की प्रति में 'भाथी के स्थान में माथा' पाठ है।