पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८९

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५२८ हामचरित मानस । अजहुँ बच्छ बलि धीरज धरहू । कुसमउ समुझि सेक परिहरहू ॥ जनि मानहु हिय हानि गलानी । काल-करम-गति अघटित जानी॥३॥ हे पुत्र बलैया लेती हूँ, अब भी धीरज धरो कुसमय समझ कर शोक त्याग दे।। मन में हानि और ग्लानि मत मानो, काल और कर्म को गति को अमिट जानो ॥३॥ काहुहि दोस देहु जनि ताता । भामोहिसब विधि बाम बिधाता ।। जो एतेहु दुख मोहि जियावा । अजहुँ को जानइ का तेहि भावा ॥४॥ हे पुत्र! किसी को दोष मत दो, सब तरह से मुझपर विधाता टेढ़ा हुआ है। जो इतने दुख पर भी मुझे जिला रहा है, अब भी कौन जाने उसे क्या अच्छी लग रहा है men दो-पितु आयसु भूषन बसन, तात तजे रघुबीर । बिसमउ हरष न हृदय कछु, पहिरे बलकल चोर ॥ १६५ ।। हे तात ! पिता की आक्षा से रघुनाथजी ने गहने और कपड़े त्याग दिये । वृक्ष की छाल के वस्त्र पहने, उनके हृदयमें हर्ष या विषाद कुछ नहीं हुआ ॥१६॥ चौं–मुख प्रसन्नमन रागन रोषू । सब कर सब विधि करि परितोषू ।। चले विपिनसुनिसिय सँग लागी । रहइ . न राम-चरन-अनुरागी ॥१॥ प्रसन्न मुख मन में ममता या क्रोध नहीं, सबका सव तरह संतोष करके वन को चले । सुन कर सीता उनके साथ लग गई, रामचन्द्र के चरणों की प्रेमिनी रोकने से रह नसकी॥१॥ सुनतहि लखन चले उठि साथा । रहहि न जतन किये रघुनाथा ॥ तब रघुपत्ति सबही सिर नाई। चले सङ्ग सिय अरु लघु भाई ॥२॥ सुनते ही लक्ष्मण उठ कर साथ चले, रघुनाथजी ने यन किये पर वे घर नहीं रहे । तर रामचन्द्र सभी को सिर नवा कर साथ में सीता और छोटे भाई को लिये चले ॥२॥ राम-लखन-सिय बनहिँ सिधाये । गइउँ न सङ्ग न पान पठाये । यह सब मा इन्ह आँखिन्हआंगे। तउ न तजा तनु जीव अभागे ॥३॥ रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण वन को चले गये, मैं न साथ गई और न प्राण ही भेजा। यह सब इन्हीं आँखों के सामने हुना, तो भी प्रभागे जीव ने शरीर को नहीं छोड़ा॥३॥ प्राणप्यारे रामचन्द्र के वन जाने पर भी प्राण शरी' से नहीं निकले, प्राण निकलने का कारण विद्यमान रहते जीव का शरीर से भिन्न न होना विशेपोक्ति अलंकार' है। सभी की प्रति में 'तह न तजा तनु प्रान प्रभागे' पाठ है। भोहि न लाज निज नेह निहारी। राम-सरिस-सुत मैं महतारी ॥ जिअइ मरइ भल भूपति जाना । मोर हृदय सत-कुलिस-समाना ॥४॥ अपना स्नेह देख कर मुझे लाज नहीं है कि रामचन्द्र के समान पुत्र की मैं माता हूँ। मरना उत्तम राजा ने जाना, मेरा हृदय सैकड़ों वन के समान कठोर है॥४॥ 1