पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५७९

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, ५१८ रामचरित मानस । दो०-प्रिया बचन मृदु सुनत नप, चितयउ आँखि उघारि । तलफत भीन मलीन जनु, साँचत सीतल बारि ॥ १५॥ प्यारी कौशल्याजी के कोमल वचन सुनते ही राजा आँख खोलकर ताक दिये। वे वचन उन्हें ऐसे मालूम हुए मानों जल विना तड़पती दुःखी मछली को किसी ने ठंदे जल से सीच दिया हो ॥ १५४॥ सभा की प्रति में सीचे सीतल बारि' पाठ है। चौ०-धरि धीरज उठि बैठि भुआलू । कहु सुमन्त्र कहँ राम-कृपालू ॥ कहाँ लखन कहँ राम सनेहीं । कह प्रिय-पुत्रवधू वैदेही ॥१॥ राजा धीरज धर कर उठ बैठे और बोले-हे सुमन्त्र ! कहो, कृपालु रामचन्द्र कहाँ हैं? लक्ष्मण कहाँ हैं ? हमारे स्नेही रामचन्द्र कहाँ है ? प्यारी पतोह जानकी कहाँ हैं । ॥१॥ बिलपत राउ बिकल भाँती "भइ जुग सरिस सिराति न राती ।। तापस-अन्ध साप सुधि आई । कौसल्यहि सत्र कथा सुनाई ॥२॥ राजा विफल होकर बहुत तरह विलाप करते हैं, रात वीवती नहीं युग के बराबर हो गई है। अन्धे तपस्वी के शाप की सुध हो आई, वह सब कथा कौशल्याजी से कह सुनाई ॥२॥ युग के समान रात बीतती नहीं, 'पूर्णोपमा अलंकार' है । समयानुसार शाप की सुध हो पाना 'स्मरण अलंकारर है। राजा ने कहा- प्रिये ! सुनो, एक बार मैं तमसा के किनारे शिकार को गया था। वहाँ रात में अपने अन्धे माता-पिता को पानी लेने श्रवण वैश्य- कुमार श्राया। मैं ने समझा कि हाथी पानी पीता है, इससे शन्दवेधी वाण मारा । जय वह हाय हाय करता हुआ गिर पड़ा, तब मुझे ज्ञात हुआ कि कोई मनुष्य है। में दौड़ कर उसके पास गया और उसे देख कर पछताने लगा। उसने कहा मुझे अपने मरने की चिन्ता नहीं, पर प्यासे माता-पिता मर जायँगे इस का बड़ा दुःख है। आप उन्हें जाकर जल पिलादें, यह " कह कर वह परलेकगामी हो गया । मैं जल लेकर गया और दम्पत्ति अन्धी-अन्धे को चुपचाप जल पिलाना चाहा, पर विना वाले उन्हों ने पानी नहीं पिया। विवश हो मुझे सब वृत्तान्त कहना पड़ा। सुनते ही दोनों तड़पने लगे और मुझे शाप दिया कि जैसे पुत्र-वियोग के दुःख से हम लोग मरते हैं, उसी तरह तुम्हारी भी मृत्यु होगी। बस तपस्वी के शाप सत्य होने का समय आ पहुँचा, अब मेरी मृत्यु ही होगी। भयउ बिकल बरनत इतिहासा। राम रहित धिग जीवन आसा ॥ सो तनु राखि करबि मैं काहा । जेहि न प्रेम-पन मोर निबाहा ॥३॥ यह इतिहास वर्णन करते राजा व्याकुल हो गये और पश्चाताप करने लगे कि बिना रामचन्द्र के जीने की माशा को धिक्कार है । उस शरीर को रख कर मैं क्या करूँगा जिसने । मेरे प्रेम की प्रतिज्ञा को पूरी नहीं किया ॥३॥ शरीर सव को आदरणीय है, परन्तु जिसने रामचन्द्र में प्रेम-प्रण नहीं निकाहा, इस विशेष दोष के कारण उसे त्याग देने का निश्चय करना तिरस्कार अलंकार है।